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खास खबर: रवांल्टी भाषा में पढ़ें वाल्मीकीय रामायण, रवांई के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि

  • प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’

आपने रामायण की अलग-अलग किताबें पढ़ी होंगी। रामायण के अलग-अलग संस्करणों का अध्ययन किया होगा। लोकभाषाओं में रामायण आधारित रामलीलाओं का मंचन भी देखा होगा। लेकिन, लोकभाषाओं में वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद और प्रकाशन बहुत कम हुआ है। रामायण प्रसार परिशोध प्रतिष्ठान रामायण को जन-जन तक पहुंचाने के लिए लगातार काम कर रहा है। प्रतिष्ठान की ओर से अब तक नौ भाषाओं में वाल्मीकीय रामायण का प्रकाशन किया जा चुका का है। उनमें रवांल्टी भाषा भी शामिल है।

ऐतिहासिक उपलब्धि

बड़ी बात यह है कि इसमें नौवां संस्करण उत्तरकाशी जिले की रवांई घाटी में बोली जाने वाली रवांल्टी भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित किया गया है। यह रवांई के इतिहास में एक नया पन्ना जोड़ने वाली उपलब्धि है। रवांल्टी भाषा के इतिहास में अब तक कविता संग्रह, लघुकथा और नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि रवांल्टी में रामायण जैसे पवित्र ग्रंथ का संक्षिप्त अनुवाद प्रकाशित हुआ है।

छह महीने का इंतजार खत्म

रवांल्टी में अनूदित संक्षिप्त वाल्मीकीय रामायण को पाठकों के हाथों तक पहुंचने में करीब छह माह का समय लगा। इसके लिए साहित्य के दशरथ मांझी कहे जा रहे ख्यातिलब्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा ने कड़ी मेहनत की। लगातार प्रकाशकों के साथ संपर्क में रहे। इस काम में करीब छह माह का समय लग गया। इस पुस्तक समेत उनकी अब तक 42 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

महावीर रवांल्टा की मेहनत

रवांल्टी भाषा के संरक्षण और संवर्धन में लिए देश के प्रसिद्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा लगातार रवांल्टी भाषा में लेखन कार्य कर रहे हैं। उन्होंने ही सबसे पहले ‘जनलहर’ में ‘दरवालु’ नाम की कविता के प्रकाशन की उपलब्धि हासिल की थी। अब लगातार लेखन से रवांल्टी को अन्य भाषाओं में महत्वपूर्ण स्थान मिलना शुरू हो गया है।

युवाओं को किया प्रेरित

भारतीय भाषा सर्वेक्षण में रवांल्टी के लिए काम करने से लेकर उत्तराखंड की विभिन्न भाषाओं में शब्दकोश के लिए भी उन्होंने काम किया। उनके प्रयासों से ही रवांल्टी को भाषाओं के कुंभ में अहम जगह मिली है। उनके कविता संग्रह और कवि सम्मेलनों के लिए युवाओं को प्रेरित करने का ही नतीजा है कि आज एक पूरी टीम रवांल्टी में लगातार लेखन कार्य कर रही है। रवांल्टी में अब तक छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

भाषाओं का इतिहास

भाषाओं की जानकारी जुटाने के लिए हमेशा से ही प्रयास होते रहे हैं। समाज के विकास में भाषाओं का ही सबसे अहम योगदान होता है। खासकर लोकभाषाओं का। लोकभाषाओं के बिना समाज का विकास असंभव है। लोकतंत्र को मजबूत करने भी में लोकभाषाओं का ही सबसे अहम योगदान है। 1971 की जनगणना में एक तरफ 8वीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को रखा गया था और दूसरी ओर अन्य सभी भाषओं को रखा गया। इस तरह इन भाषाओं को कोई खास महत्व नहीं दिया गया। यह लोकभाषाओं को हाशिए पर धकेलने वाला कदम था।

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन भाषा सर्वेक्षण

भारतीय भाषाओं का भाषा सर्वेक्षण जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1894 से 1928 के बीच किया था। इसे ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया’ नाम दिया गया था और 21 खण्डों की एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। रिपोर्ट में 179 भाषाएं और 544 बोलियों को शामिल किया गया था। इस रिपोर्ट में गियर्सन ने खंड-9 के भाग-4 नेपाली, गढ़वाली-कुमाऊंनी, हिमाचली भाषाओं को उन्होंने पूर्व पहाड़ी, मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी का नाम दिया है। इनके अलावा उन्होंनें जौनसारी को हिमाचल के साथ पश्चिमी पहाड़ी भाषाओं के साथ रखा था। इसमें गढ़वाली की आठ उप बोलियां भी बताई गई थी।

प्रो.गणेश एन देवी ने का सर्वे

जॉर्ज अब्राहम गियर्सन के ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया’ के करीब सौ साल बाद 2010 में भारत के 27 राज्यों की भाषाओं पर सर्वेक्षण का काम शुरू किया गया। इस सर्वेक्षण में तीन हजार भाषा जानकारों के साथ ही 500 भाषाविदों ने अहम भूमिका निभाई। कई भाषाएं पिछले दो से ढाई सौ सालों में लुप्त हो गई हैं। उसका मुख्य कारण यह रहा कि उन भाषाओं में साहित्य सृजन नहीं किया गया। इसके चलते धीरे-धीरे वह गायब हो गई। इससे एक सीख मिलती है कि हमें लोकभाषाओं में लिखने के साथ ही उन्हें अपनी नई पीढ़ी को भी सिखाना चाहिए।

सर्वे की खास बात

प्रो. गणेश एन देवी के निर्देशन में जो भाषा सर्वेक्षण किया गया है, उसे ‘पिपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ (भारतीय भाषा  लोक सर्वेक्षण) में लोकभाषा के जानकारों ने अपने-अपने क्षेत्र की भाषाओं पर सर्वेक्षण कार्य किया।

भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण

भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण का 30वां खंड,भाग एक ‘उत्तराखंड की भाषाएं’ 2014 में प्रकाशित हुआ, फिर 30,वां खंड भाग-2 लेंग्वेजेज आफ उत्तराखंड प्रकाशित किया गया। इसमें उत्तराखंड की गढ़वाली, जौनसारी, जौनपुरी, जाड, बंगाणी, रवांल्टी, मार्च्छा, कुमाउंनी, जोहारी, थारू, बोक्साड़ी, रं-ल्वू और राजी को शामिल किया गया है।

यह काम भी हुए

डॉ. सविता मोहन के कार्यकाल में उत्तराखंड भाषा संस्थान की ओर से भी उत्तराखंड की भाषाओं का सर्वेक्षण किया गया, जिसमें महावीर रवांल्टा ने ‘रवांल्टी का सांस्कृतिक एवं समाज भाषा वैज्ञानिक विवेचन’ पर काम किया गया। ‘पहाड़’ नैनीताल ने 2017 में डा. उमा भट्ट और चंद्रकला रावत के संयोजन में उत्तराखंड की इन 13 भाषाओं के बहुभाषी शब्दकोश ‘झिक्कल काम्ची उडायली’ का प्रकाशन किया गया, जिसमें 15 सौ आधारभूत और सौ संस्कृतिबोधक शब्द शामिल किए गए। इस तरह से उत्तराखंड में कुल 13 भाषाओं का सर्वेक्षण हुआ है। यही भाषाएं बोली भी जा रही हैं और इनमें साहित्य सृजन भी हो रहा है। हालांकि, गढ़वाली, कुमाउंनी, रवांल्टी और जौनसारी को छोड़कर अन्य भाषओं में साहित्य बहुत कम उपलब्ध है।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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