राजनीति का खेल शतरंज की तरह ही होता है…। राजा को बचाने के लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता है…। यहां भी चालें चली जा रही हैं…। खुद को बचाने के लिए उस पहाड़ को भी बांट देना चाहते हैं…जिस पहाड़ को वो कल तक अपनी राजधानी बनाने का ढोल पीट रहे थे…।
संकट क्या आया ? उत्तराखंड को मैदान और पहाड़ के टुकड़ों में बांटने का खेल शुरू कर दिया…। राज्य बना…लेकिन पहाड़ का भाग्य नहीं बदला…। बदहाल पहाड़ और बदहाल हो गया…। पहाड़ राजनीतिक रूप से भी सिकुड़ता जा रहा है…।
अगर जल्द इस सिकुड़न को नहीं रोका गया तो…एक दिन ऐसा आयेगा जैसे हिमालय के ग्लेशियर सिकुड़कर छोटे हो गए…ये पहाड़ भी मिट्टी में मिलकर मैदान हो चुका होगा…।
अब पहेलियां छोड़कर असल मसले पर आते हैं…। त्रिवेंद्र सरकार के खिलाफ उन्हीं के विधायकों ने बगावत का बिगुल बजा दिया…। केवल हवाई और खबरी नहीं…। दिल्ली दरबार तक दौड़ हुई…।
बयानों के तीर चले…चिट्ठी बम फूटे…। जैसा नजर आ रहा है…लगता है…इस बार चोट गहरी लगी है…। सरकार को विपक्ष भले ही चुनौती नहीं दे पाया हो…लेकिन, अपने ही विधायकों ने घुटनों पर ला दिया…।
खुद के घुटने छिलते देख…सरकार मैदान और पहाड़ के गेम पर उतर आई…। मामला एकदम साफ है…पूरी तरह साफ…। सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले ज्यादातर विधायक पहाड़ी हैं…। दिल्ली दौड़ भी उन्होंने ही लगाई…। सरकार-संगठन डैमेज कंट्रोल के लिए विधायकों को भी घुट्टी पिला सकते थे…लेकिन वो रास्ता नहीं चुना गया…।
मैदानी विधायकों खासकर देहरादून जिले के MLA की मीटिंग कराई गई…। मकसद देहरादून से आॅल इज वेल का मैसेज देने का था…। यह बताने का था कि मैदान सेफ है…। पहाड़ से फर्क नहीं पड़ता…।
आखिर क्यों…? पहाड़ के जिलों के विधायकों की बैठक भी तो कराई जा सकती थी…। नाराज विधायकों के साथ सूबेदार खुद भी तो बैठक कर सकते थे…। लेकिन, नहीं उस कुर्सी को तो बेदाग साबित करना है…जिस पर अपने ही दाग लगा रहे हैं…। वो दाग तो हर हाल में धोने ही हैं…चाहे पहाड़-मैदान का ही खेल क्यों ना खेलना पड़े…।
कब तक पहाड़ और मैदान के इस गेम में उत्तराखंड का बैंड बजता रहेगा…? कब तक मैदान के लिए पहाड़ को कुर्बान किया जाता रहेगा…? कब तक मैदान में बैठकर पहाड़ का फैसला होता रहेगा…? कब तक पहाड़ अपने ही राज्य में उस मैदान से लड़ता रहेगा…जो बना ही पहाड़ काटकर…कब तक…?
-प्रदीप रावत (रवांल्टा)