- प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’
“जिसके पास जात-पात, नाते-रिश्ते, जुगाड़ और जेब है, वही प्रधान के लायक है! ये कोई गांव की चौपाल पर बैठा हलका-फुल्का बयान नहीं, बल्कि इस वक्त उत्तराखंड के ग्रामीण लोकतंत्र का मूलमंत्र बन चुका है। पंचायत चुनाव यानी वो महा-उत्सव, जिसमें जनतंत्र की चाशनी में रिश्तेदारी, रंजिश और रसूखदारी की तली हुई कचौड़ियां परोसी जाती हैं। इन चुनावों की असली गर्मी गांव की उस गली में महसूस की जा सकती है जहाँ रोज़ पहले तो चुनावी चाय पी जाती है, फिर उसी कप से रिश्ते धोए जाते हैं। ग्राम प्रधान…‘गांव का प्रधानमंत्री’ बनने की तलब नजर आ रही है। क्या गांव में प्रधान बनने की होड़ देखी है कभी?
यहां तो लड़ाई आजकल खेतों में पानी की एक बूंद लगाने के लिए हो जा रही है…और यहां से शुरू होकर गौशाला के बकरीद्वार तक पहुंचती है। हर गली, हर घर में बस एक ही चर्चा है कि “कौन बनेगा प्रधान? दाई-भाइयों की मीटिंगें शुरू हो चुकी हैं, जिनमें शकुनि मामा टाइप रणनीतिकार नक्शे बना रहे हैं। बना-बनाया खेल बिगाड़ने की फिराक में बैठे हैं।
“उसकी बहू तेरी भतीजी की चचेरी ननद की जेठानी है, तो वोट तो तेरा ही है। लेकिन, पिछली बार बर्थडे पार्टी में मिठाई नहीं आई थी, तो इस बार नहीं देना। उसने उस दिन मुझे गाली दी थी…पुरानी लड़ाई-झगड़े सब सरस्वती मां की तरह जुबान पर आकर बैठ गए हैं। हर एक पुरानी बात, जो पांच साल तक याद नहीं आई…आज एक दम जिबड़ी पर बैठ रखी है। यहां वोटों का गणित बहुत कठिन है…। चुनाव नहीं, ताश की बाज़ी चल रही है।
क्षेत्र पंचायत-थोड़ा बड़ा घेरा, पुराना खेल
ग्राम पंचायत पार कर जो राजनैतिक किशोर बनते हैं, वे क्षेत्र पंचायत में जवान होते हैं। यहां हर प्रत्याशी खुद को गांव का विकास पुरुष घोषित कर चुका है, जबकि ग्रामीण पूछ रहे है…भैया! पिछली बार की विकास राशि से तुमने अपनी कार ली थी…या देहरादून में घर बनाय? कुछ ने तो इन सवालों के डर से मैदान ही छोड़ दिया…।
“मैं जीता तो ये करा दूंगा-वो करा दूंगा…पर आज तक कोई कुछ करा नहीं पाया। बस एक ही दिवार को अलग-अलग विभागों की योजनाओं में नपवाना जरूर सीख गए। गजब कला है ये…इसमें बिना कराए ही काम दिख जाता है। अब आपकी मर्जी पैसा कुछ अधिकारियों की जेब में डालो या शिकायतखोरों की दारू-मुर्गा खिलाओ…अपनी जेब तो भर ही जाती है।
जिला पंचायत: पंचायत चुनाव का आईपीएल लीग
अब आते हैं असली फाइनल राउंड पर…जिला पंचायत सदस्य! यहां तो हालात ऐसे हैं कि हर दूसरा उम्मीदवार खुद को “आने वाला अध्यक्ष” घोषित कर चुका है। देहरादून से लेकर पिथौरागढ़ तक हर टेम्पो, हर बोलेरो, हर बुलेट और हर फेसबुक लाइव में एक ही डायलॉग…“मैं नहीं, जनता चाहती है कि मैं जिला पंचायत अध्यक्ष बनूं।”
जनता तो चाहती है कि ये नेता पहले गांव की सड़क बनवा दें, लेकिन कौन सुने? यहां तो बाहुबली, धनबली और मोबाईल नेटवर्क से जोड़-जुगाड़ चल रहा है। एक वोट की कीमत…बताई नहीं जाती, बस तय की जाती है…मतलब लोकतंत्र में मूल्य नहीं, रेट चलता है।
राजनीति का जातीय तड़का और सियासी नमकपानी
जात, पात, गोत्र, बाप-दादा की इज़्ज़त, पड़ोसी की नाराज़गी, चाचा का हुक्का और फूफा की गाय, भैंस, बकरी सब मिलाकर बनता है पंचायत चुनाव का समीकरण। और इसके ऊपर आता है, भाजपा बनाम कांग्रेस” का नमकीन मसाला। वो आप जानते ही हैं।
2027 का ट्रेलर या 2025 का तमाशा?
राजनीति के सियासी पंडित इस पंचायत चुनाव को 2027 की विधानसभा का ट्रेलर बता रहे हैं। मतलब यह कि अगर आपने चचेरे भतीजे के दोस्त को वोट नहीं दिया, तो पांच साल बाद बिजली का खंभा भूल जाइए। कुलमिलाकर ये चुनाव नहीं, सामाजिक टेस्ट है।
यह तो रिश्तों का रिफ्रेशमेंट टेस्ट है।