घ्वेड़ संग्रांद (संक्रांति), बाकरी संग्रांद। पचांग के अनुसार जेष्ठ संक्रांति। आज के दिन लोग घरों में आटे की बकरी बनाते हैं। उसे तलने के बाद देवता को चढ़ाया जाता है। त्योहार का मूल क्या ? ये क्यों मनाया जाता है ? कहां से आया है ? जैसे कई सवालों के जवाब खोजने का काफी प्रयास किया, लेकिन कुछ सटीक नहीं मिल पाया।
धुंधली सी याद रहती है
बचपन की कुछ धुंधली सी याद रहती है…आटे की बकरियां बनाने की। मिट्टी के खिलौने तो हमने स्कूल के खूब बनाए थे। आज जेष्ठ संक्रांति थी। इस संक्रांत को घ्वैड़ संक्रांति और बाकरी संग्रांद के रूप में भी मनाया जाता है। मनाने के कारण पर अब भी साफ नहीं है। लेकिन, एक बात साफ है कि टिहरी के कुछ इलाकों में इसे घ्वैड़ संग्रांद के रूप में मनाया जाता है। रवांई में बाकरी संग्रांद के रुप में मनाया जाता है।
जब कुछ नहीं मिला
बाकरी संग्रांद के बारे में काफी प्रयास करने के बाद भी जब कुछ नहीं मिला। फिर सोचा कि गूगल किया जाए, लेकिन वहां भी कुछ हाथ नहीं लगा। इस बीच पूर्व ब्लाक प्रमुख रचना बहुगुणा जी का मैसे आया। उन्होंने इसके बारे में कुछ जानकारी दी। वहीं से मन में ख्याल आया कि कुछ लिखा जाए।
मेरे पास कोई प्रमाण तो नहीं
उन्होंने जो बातें बताई, उसके सही होने का मेरे पास कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन जो संकेत और मान्यताएं हैं। उनसे एक बात जरूर साफ होती है कि इसका बलि प्रथा से जरूर कोई संबंध है। संबंध इसलिए कि आटे से बनी बकरियों को देवता को चढ़ाया जाता है। माना जाता है कि पहले इस दिन घ्वेड़ काकड़ का शिकार किया जाता था। सच का पता लगाने का प्रयास है।
बाकरी संग्रांद बनने का भी कारण
इसके बाकरी संग्रांद बनने का भी कारण है। काकड़ का शिकार बहुत आसान नहीं होता है। उसके विकल्प के रूप में लोग बकरी की बलि देना शुरू किया होगा। कुछ जानकार बताते हैं कि राजशाही के बाद लोगों ने खुद से बलि प्रथा को समाप्त करने का संकल्प लिया था। उसके विकल्प के रूप में देवता को आटे से बनी बकरियों का भोग लगाया जाने लगा। इस त्योहार को उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप में मनाया जाता है।
खुद के लिखे से संतुष्ट नहीं हूं
हालांकि, मैं अब भी खुद के लिखे से संतुष्ट नहीं हूं, लेकिन रचना बहुगुणा जी और अन्य लोगों से मिली जानकारी के से इतना साफ हो पाया कि बलि प्रथा को रोकने के विकल्प के रूप में आटे से बकरी बनाना और घ्वेड़ बनाना शुरू किया था। सालों से परंपरागत ढंग से आगे बढ़ता जा रहा है। ये हमें यह भी बताता है कि बलि प्रथा को रोकने के लिए काफी पहले ही कदम उठाए जाने लगे थे। लोगों से जानकारी साझा करने से कुछ जानकारियां मिलने की उम्मीद के साथ।
…प्रदीप रावत (रवांल्टा)