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उत्तराखंड : 65-70 गांवों के दो थोकों साठी और पानशाई का साझा पर्व है देवलांग, देशभर से पहुंचते हैं श्रद्धालु

  • प्रदीप रावत “रवांल्टा”

गैर (बनाल): देवलांग महापर्व। यह कोई आम पर्व नहीं। यह पर्व लाखों लोगों की आस्था से जुड़ा पर्व है। इसमें 65 से 70 गांवों के लोगों के साथ रवांई घाटी के हजारों-हजार लोग पहुंचते हैं। देवलांग का रोमांच ही कुछ ऐसा है कि इसे एक बार देखने के बाद लोग बार-बार यहां खिंचा चला आता है। नौगांव ब्लाक की बनाल पट्टी के गैर गांव में होने वाला यह देव पर्व कई सदियों से चला आ रहा है। आरोध्य देव राजा रघुनाथ के दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से पहुंचते हैं।

इस बार यह देव पर्व 12 दिसंबर की मध्य रात्रि के बाद शुरू हो कर 13 दिसंबर की सुबह 6 से 7 बजे के बीच संपन्न होगा। देवलांग महापर्व हमेशा ही दिव्य और भव्य होता है। देवलांग पर्व के बारे में कोटी बनाल निवासी शिक्षक और साहित्यकार राष्ट्रीय युवा पुरस्कार विजेता दिनेश रावत ने अपनी पुस्तक में विस्तार से दिखा है। उन्होंने अपनी पुस्तक में देवलांग पर्व के पौराणिक होने के भी कई प्रमाण दिए हैं। साथ ही क्षेत्रीय मान्यताओं की भी जानकारी दी है।

देवभूमि उत्तराखंड के सीमांत जनपद उत्तरकाशी का यमुना और टोंस घाटी का क्षेत्र रवांई नाम से प्रसिद्ध है। जिले का यह पश्चिमोत्तर क्षेत्र उत्तर में स्वर्गारोहिणी, बंदरपुंछ जैसी हिमाच्छादित पर्वतश्रेणियों और उत्तर पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण पश्चिम में जौनसार बावर से घिरा हुआ है। रवांई क्षेत्र अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर और रीति-रिवाजों के लिए जाना-पहचाना जाता है।

रवांई में कार्तिक की दिवाली की अपेक्षा मार्गशीर्ष की दिवाली अधिक उत्साह से मनाई जाती है। मांर्गशीर्ष की इस दिवाली को मंगसीर की बग्वाल, बुढ़ी दिवाली भी कहा जाता है। रवांई घाटी के इस सबसे बड़े महापर्व देवलांग की समृद्धता और विशालता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने इसे राज्य स्तरीय मेला घोषित किया है। हालांकि, राजकीय मेले के बाद से देवलांग की दिव्यता और भव्यता में कोई ज्यादा सकारात्मक फर्क नहीं पड़ा है। कुछ दिक्कतें जरूर देखने को मिल रही हैं।

तहसील बड़कोट के बनाल और तहसील पुरोला के रामासिरांई-कमलसिरांई क्षेत्र के लगभग 65-70 गांव के आराध्य देव राजा रघुनाथ महासू के गैर बनाल मंदिर में रवांई घाटी का यह सबसे बड़ा महापर्व मनाया जाता है। जिस तरह से चार महासू देवता का जौनसार-बावर, हिमाचल, फतेह पर्वत क्षेत्र शाठीबिल और पांशीबिल दो क्षेत्रों में बंटा है। उसी तरह व्यवस्था चलाने के लिए राजा रघुनाथ का बनाल-सेरांई क्षेत्र भी साठी और पानशाई दो थोकों में बंटा है।

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महासू जागरों में जिस प्रकार रात भर चिड़ा जलाया जाता है। उसी प्रकार रवांई में यह विशाल पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। देवलांग के लिए देवदार के पेड़ को विधि-विधान से नटाण बंधु मंदिर परिसर में लाते हैं। रात्रि में बियांली के खबरियाण देवलांग को सजाने का कार्य करते हैं। एक तरह से कहा जाए तो देवलांग को लाने से और सजाने तक के असल हीरो यही लोग हैं। स्थानीय बोली में देव का अर्थ इष्ट देव और लांग का अर्थ खम्भे की तरह सीधे खड़े पेड़ से है।

इसमें लांग को इष्ट देवता का प्रतीक मानकर पूजने के बाद अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसलिए इस पर्व का नाम देवलांग पड़ा। देवलांग को जलाने के लिए क्षेत्रवासी मशाल लेकर आते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में महासू कु ओल्ला कहा जाता है। रात के अंतिम पहर में जैसे-जैसे अंधेरा छंटता है। मंदिर परिसर में हजारों लोगों की भीड़ जमा होने लगती है। दोनों थोक के सभी ग्रामवासी ढोल-दमाऊ की थाप और रणसिंघे की गूंज के साथ ओल्ल लिए हुए झुमैलो, रास, तांदी, हारूल नृत्य करते-करते मंदिर पहुंचते हैं।

परंपरानुसार कोटी-बखरेटी के बजीरों की पिठांई लगाई जाती है। श्री राजा रघुनाथ अपने देवमाली पर अवतरित होकर छीमा-टिक्का देकर देवलांग को उठाने की अनुमति देते हैं। फिर होता है वह समागम जिस पर सबकी नज़रें टिकी होती हं।ै देवलांग को उठाने का तरीका और इस बीच जो उत्साह और शोर, राजा रघुनाथ के जयकार गूंजते हैं, वह सभी रोमांचित करता है। लाठी-डंडों से इतने बड़े पेड़ को उठाना कोई आम बात नहीं होती है।

साठी और पानशाही लकड़ी से बनी कैंचियों से देवलांग को उठाने का प्रयास करते हैं। इसमें देवलांग गिरती भी रहती है। परंतु जोश कम नहीं होता। अगर किन्हीं कारणवश देवलांग का शीर्ष भाग टूट जाता है, तो तुरंत दूसरी देवलांग लाई जाती है। देवलांग की अंतिम अग्नि का विसर्जन भगवान मड़केश्वर महादेव के मंदिर में किया जाता है।

इस महापर्व को देखने देशभर से लोग आते हैं और राजा रघुनाथ जी के दर्शन करके पुण्य के भागी बनते हैं। प्रत्येक घर मंे देवलांग पनर्व पहाड़ी पकवान बनाए जाते हैं। चूड़ा कुठे जाते हैं, घरों को सजाया जाता है। रास्ते साफ किये जाते हैं। अतिथियों का सत्कार किया जाता है। रघुनाथ जी को महासू राजा, बड़ देवता, मुलुकपति, कुल्लू काश्मीरा, नागादेवा नामों से पुकारा जाता है।

मुलुकपति महासू राजा रघुनाथ जी के देवमाली शयालिकराम गैरोला के अनुसार आधुनिकता के इस दौर में विलुप्त होती संस्कृति को संरक्षित करने की नितांत आवश्यकता है। राजेंद्र सिंह रावत राजकीय महाविद्यालय बड़कोट में हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफेसर गैर गांव निवासी दया प्रसाद गैरोला का कहना है कि देवलांग संसार को तमसो मा ज्योतिर्गमय का संदेश देने वाला पर्व है। उनका कहना है कि हमें अपने इस पर्व की गरिमा को बनाए रखने की जरूरत है, जिससे हम अपनी इस विरासत को अपनी आने वाली पीढ़ी को उसके मूल स्वरूप में सौंप सकें।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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