Wednesday , 18 June 2025
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उत्तराखंड: लोकपर्व फूलदेई, जानें क्यों है खास, क्या है मान्यता

देहरादून: लोक पर्व फूलदेई फूलों के बहार के साथ ही नव वर्ष के आगमन का भी प्रतीक है। कई दिनों तक इस त्योहार को मनाने के पीछे मनभावन बसंत के मौसम की शुरुआत भी मानी जाती है। सूर्य उगने से पहले फूल लाने की परंपरा है। इसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, क्योंकि सूर्य निकलने पर भंवरे फूलों पर मंडराने लगते हैं, जिसके बाद परागण एक फूल से दूसरे फूल में पहुंच जाते हैं और बीज बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

नए जीवन का सृजन

फूलदेई का त्योहार खुशी मनाने के साथ ही प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है। साथ ही बसंत के इस मौसम में हर तरफ फूल खिले होते हैं, फूलों से ही नए जीवन का सृजन होता है। चारों तरफ फैली इस बासंती बयार को उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

खुशहाली और समृद्धि की कामना

चैत महीने में लोगों की घर की देहरी पर फूल रखकर खुशहाली और समृद्धि की कामना की जाती है। इस मौके पर बच्चे फूलदेई, छम्मा देई के गीत गाते हैं। एक माह तक सुबह-सुबह बच्चें और लड़कियां बांस की टोकरी पर फूल सजा कर घरों की देहरी पर रखती हैं। साथ ही इस दौरान लोकगीत भी सुनने को मिलते हैं। इसके बाद लोग इन्हें चावल, गुड़ और रुपये भेंट करते हैं।

फूलदेई, छम्मा देई

घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार’ गीत गाते हुए बच्चों को लोग इसके बदले में दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा (रुपए) दान करते हैं। पूरे माह में यह सब जमा किया जाता है। इसके बाद घोघा (सृष्टि की देवी) पुजाई की जाती है। चावल, गुड़, तेल से मीठा भात बनाकर प्रसाद के रूप में सबको बांटा जाता है। कुछ क्षेत्रों में बच्चे घोघा की डोली बनाकर देव डोलियों की तरह घुमाते हैं। अंतिम दिन उसका पूजन किया जाता है।

यह भी है एक कहानी

एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई।

पेड़-पौधे मुरझाने लगे

फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे। उधर, महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे।

फ्यूंली को दफनाया गया

फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की दुआ करती हैं।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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