Monday , 16 June 2025
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उत्तराखंड : ‘जसवंतगढ़’ के नाम से जाना जाएगा ‘लैंसडौन’, रक्षा मंत्रालय लगाएगा मुहर!

लैंसडौन : लैंसडौन ये वो नाम है, जो उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश और दुनिया के पर्यटन प्रेमियों की पहली पंसद है। यहां हर साल देश के विभिन्न राज्यों के साथ ही दूसरे देशों के पर्यटक भी घूमने पहुंचते हैं। यह गढ़वाल राइफल का रेजिमेंटल सेंटर भी है। यहीं पर गढ़वाल राइफल के योद्धाओं को तैयार किया जाता है। केंद्र सरकार ने अंग्रेजों के जमानें की पहाचन बो बदलने की एक मुहिम शुरू की थी। उसीके तहत लैंसडौन का नाम बदले जाने चर्चा लंबे समय से चल रही है।

लैंसडौन का नाम बदलने की घोषणा के बाद से ही स्थानीय लोग लगातार इसका विरोध कर रहे हैं। लैंसडौन का नाम बदलना कहीं ना कहीं इस हिल स्टेशन की पहचान को पूरी तरह से बदलने जैसा है। लोगों ने नाम बदलने की चर्चा सामने आने के बाद ही विरोध दर्ज करा दिया था। उसके बाद मामला कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में चला गया था। लेकिन, अब एक फिर चर्चा है कि लैंसडौन का नाम बदल दिया जाएगा। पहली बार इसके लिए छावनी परिषद ने अपने बोर्ड बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पास किया है और उसे रक्षा मंत्रालय को भेज दिया है।

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पहले लैंसडौन का नाम कालों डांडा रखे जाने की चर्चा थी। उसके पीछे यह तर्क दिया गया था कि यहा 1886 में गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना हुई। पांच मई 1887 को ले. कर्नल मेरविंग के नेतृत्व में अल्मोड़ा में बनी पहली गढ़वाल रेजीमेंट की पलटन चार नवंबर 1887 को लैंसडौन पहुंची। उस समय लैंसडौन को कालौं का डांडा कहते थे। 21 सितंबर 1890 तत्कालीन वायसराय लार्ड लैंसडौन के नाम पर लैंसडौन रखा गया।

लेकिन, अब लैंसडौन का नाम परिवर्तित कर जसवंतगढ़ करने का सुझाव छावनी परिषद ने रक्षा मंत्रालय को भेजा है। रक्षा मंत्रालय ने पूर्व में छावनी बोर्ड से नाम बदलने संबंधी सुझाव मांगा था। जानकारी के अनुसार तीन दिन पहले हुई छावनी बोर्ड की बैठक में लैंसडौन का नाम वीर शहीद जसवंत सिंह के नाम से जसवंतगढ़ करने का प्रस्ताव पारित किया गया।

मीडिया को दिए बयान में छावनी बोर्ड की कार्यालय अधीक्षक विनीता जखमोला ने बताया कि छावनी बोर्ड के अध्यक्ष ब्रिगेडियर विजय मोहन चौधरी की अध्यक्षता में तीन दिन पहले हुई बैठक में लैंसडौन नगर का नाम हीरो ऑफ द नेफा महावीर चक्र विजेता शहीद राइफलमैन बाबा जसवंत सिंह रावत के नाम पर जसवंतगढ़ करने का प्रस्ताव पारित किया गया है। इस प्रस्ताव को कैंट के प्रमुख संपदा अधिकारी मध्य कमान लखनऊ के माध्यम से रक्षा मंत्रालय को भेजा है।

जानें कौन थे बाबा जसवंत सिंह रावत
चीन के साथ लड़ा गया 1962 का युद्ध भारतीय सेना के वीर जवानों की गौरव गाथा है। इस युद्ध में सीमा की रक्षा करते हुए देश के कई जाबाजों ने अपना बलिदान दिया। इन वीर योद्धाओं में महान सपूत रहे राइफल मैन जसवंत सिंह रावत भी शामिल थे। जिन्होंने 72 घंटे भूखे-प्यासे रहकर चीनी सैनिकों को न सिर्फ रोके रखा, बल्कि 300 चीनी सैनिकों को ढेर कर दिया था।

पौड़ी जिले के बीरोंखाल ब्लॉक के दुनाव ग्राम पंचायत के बाड़ियूं गांव में 19 अगस्त, 1941 को जसवंत सिंह रावत का जन्म हुआ था। उनके पिता गुमान सिंह रावत और माता लीला देवी थीं जिस समय वे शहीद हुए उस समय वह गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेवारत थे। 1962 का भारत-चीन युद्ध अंतिम चरण में था। चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुंच गए थे। भारतीय सैनिक भी चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे।

पढ़ें गढ़वाल राइफल का पूरा इतिहास

जसवंत सिंह रावत सेला टॉप के पास की सड़क के मोड़ पर तैनात थे। इस दौरान वह चीनी मीडियम मशीन को खींचते हुए वह भारतीय चौकी पर ले आए और उसका मुंह चीनी सैनिकों की तरफ मोड़कर उनको तहस-नहस कर दिया। 72 घंटे तक चीनी सेना को रोककर अंत में 17 नवंबर, 1962 को वह वीरगति को प्राप्त हुए। मरणोपरांत वह महावीर चक्र से सम्मानित हुए।

राइफलमैन रावत को 1962 के युद्ध के दौरान उनकी वीरता के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं, जिन्हें मौत के बाद प्रमोशन मिला था। पहले नायक फिर कैप्टन और उसके बाद मेजर जनरल बने। इस दौरान उनके घरवालों को पूरी सैलरी भी पहुंचाई गई। अरुणाचल के लोग उन्हें आज भी शहीद नहीं मानते हैं। माना जाता है कि वह आज भी सीमा की सुरक्षा कर रहे हैं।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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