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उत्तराखंड : स्कूलों हर साल करोड़ों खर्च, फिर भी व्यवस्था चौपट…चौंका देगी ये रिपोर्ट

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10 हजार करोड़। इतना बजट एक ही विभाग में खर्च होता है। नाम है शिक्षा विभाग। शिक्षा सबसे जरूरी है। देश में भले ही अन्य चीजे मुफ्त मिल सकती हों, लेकिन शिक्षा मुफ्त नहीं मिलती। अकेले शिक्षा विभाग में हर साल विभिन्न मदों से मिलने वाले बजट को मिलाकर देखें तो यक 10 हजार करोड़ बैठता है। यह कोई मामूली रकम नहीं है। लेकिन, सरकार स्कूलों की हालत एकदम मामूली है। इतननी खस्ताहाल कि अब 10 हजार करोड़ का बजट भी कम पड़ने लगा है।

अब आपको आंकड़ों के जरिए यह बताते हैं कि वास्तव में प्रदेश में कितने स्कूल हैं और इनकी हालत कैसी है? यह सवाल बजट की भारी-भरकम रकम के बारे में जानने के बाद आपके मन में जरूर उठ रहा होगा? सवाल उठना भी चाहिए। क्योंकि जिस सरकार व्यवस्था पर अतनी रकम खर्च हो रही हो और यह रकम आपके और हमारे जेब से निकले टैक्स के जुटाई गई हो, तो सवाल और जरूरी हो जाता है।

प्रदेश में 16501 सरकारी स्कूलों हैं। इनमें से सैकड़ों स्कूल बदहाल हैं। बदहाली का आलम यह है कि कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। जो 10 हजार करोड़ का बजट खर्च किया जा रहा है। उसमें 1100 करोड़ केंद्र सरकार समग्र शिक्षा अभियान के लिए देती है। 200 करोड़ मिड डे मिल के लिए मिलता है।

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इतना सबकुछ होने के बाद 96 प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं, जिनके अपने भवन ही नहीं हैं। राज्य के 934 स्कूलों में बालकों के लिए शौचालय नहीं हैं। इससे चिंता और सोचने की बात यह है कि जहां बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारे लगाए जाते हों, वहां हमारी बच्चियों के लिए शौचालत तक नहीं हैं। उत्तराखंड में ऐसे स्कूलों का आंकड़ा 895 है। हर घर नल से जल पहुंचाने के विज्ञापनों पर करोड़ा खर्च किए जा रहे हैं। बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं।

लेकिन, इस दौर की हकीकत यह है कि 542 स्कूलों में पीने का पानी तक सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है। इन स्कूलों में गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। उनमें कई असक्षम बच्चे भी होते हैं। देश के प्रधानमंत्री ने जिन बच्चों के लिए दिव्यांग शब्द इजात किया, उन बच्चों के लिए 2864 प्राथमिक स्कूलों में रैंप तक नहीं हैं। चलने-फिरने में असमर्थ बच्चे अगर किसी सहारे के भरोसे स्कूल तक पहुंच भी जाएं, तो स्कूल में बगैर रैंप के उनका चढ़ा मुश्किल हो जाता है। स्मार्ट क्लास के नाम पर उत्तराखंड में करोड़ों खर्च किए गए। उद्घाटनों के दौर चले।

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मंत्री बदले, लेकिन स्कूलों की हालत नहीं बदली। स्कूलों बच्चों को अब तक मुफ्त किताबें नहीं मिल पाई हैं। सरकार का फरमान है कि शिक्षक आनलाइन पढ़ाएं। सवाल यह है कि 1609 में बिजली ही नहीं है तो ऑनलाइन कैसे पढ़ा जाए। पुस्तकालय हर स्कूल में होना चाहिए। लेकिन, बिडंबना देखिए कि करीब आधे स्कूलों 3433 में पुस्तकालय ही नहीं है। खेल और पढ़ाई साथ-साथ चलने और सीखे जाने जरूरी हैं। दोनों की दौड़ भी बराबर की होनी चाहिए। आलम यह है कि दावे तो ओलंपिक के लिए खिलाड़ी तैयार करने के करते हैं और 5633 स्कूलों में खेल मैदान ही नहीं है।

ऐसा ही बेहाल हाल माध्यमिक स्कूलों का भी है। आधा दर्जन स्कूलों के पास भवन ही नहीं हैं। जुगाड़ से स्कूल चलाए जा रहे हैं। 286 में बालक शौचालय, 114 में बालिका शौचालय, 81 में पेयजल, 57 में बिजली और 384 में पुस्तकालय नहीं है। 1072 में खेल मैदान, 1041 में प्रयोगशाला, 886 में भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला, 902 में रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला और 886 में जीव विज्ञान की प्रयोगशाला नहीं है। अब खुद ही अंदाजा लगाइए कि जिन स्कूलों में लाइब्रेरी और लैब ही नहीं है। उन स्कूलों के बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो स्कूल से प्रयोग के जरिए कुछ सीखेंगे और देश का नाम रोशन करेंगे। जहां, उनके भविष्य को रोशन करने की रोशन ही नहीं है, वो कैसे देश का नाम रोश करेंगे।

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अब शिक्षा विभाग ने एक और जुगाड़ के जरिए स्कूलों में कुछ समस्याओं को दूर करने तरीका खोल निकाला है। सफल होगा या नहीं, फिलहाल कहना थोड़ा कठिन है। कुछ चीजों को भविष्य के लिए भी छोड़ देना बेहतर होता है। शिक्षा महानिदेशक बंशीधर तिवारी के मुताबिक स्कूलों को गोद लेने वाले व्यक्ति के माता-पिता या किसी अन्य के नाम पर स्कूल का नामकरण किया जाएगा। इसके बदले संबंधित को स्कूल पर आने वाले कुछ खर्च वहन करने होंगे। विभाग की ओर से इसके लिए प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है, जिसे कैबिनेट में लाया जाएगा।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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