- प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’
स्कूलों का नया सत्र शुरू हो गया है। स्कूलों का त्योहार शुरू हो गया है। कोई ऐसा-वैसा त्योहार नहीं…लूट का त्योहार। स्कूलों का नया सत्र स्कूल वालों के लिए चांदी काटने वाला होता है। नया सत्र शुरू होने से पहले ही किताबों में कमीशन तय हो जाता है। दुकानें फिक्स हो जाती हैं। स्कूलों का सिलेबस भी बदल जाता है। कहीं पांच-सात सौ तो कहीं 1000-2000 फीस भी बढ़ जाती है।
अब आपको कहानी की ओर ले चलते हैं। अगर आपके दो बच्चे हैं। दोनों एक ही स्कूल में हैं और अगर आप सोच रहे हैं कि बड़े की किताबें छोटे के काम आ जाएंगी, तो ये आपकी भूल है। स्कूल वाले जानते हैं कि ऐसा करके आप कुछ पैसे बचा लेंगे। उन्होंने आपके पैसे बर्बाद करने का प्लान पहले से ही तैयार किया हुआ है।
माना कि मेरा बेटा पांचवीं कक्षा पास करके छठी में गया है। उसकी पांचवीं की किताबें मैं उसीके विद्यालय में किसी बच्चे को देना चाहता हूं। बच्चा लेना भी चाहता है। लेकिन, व्यापारिक बुद्धी वाले स्कूल संचालक ने उसका तोड़ पहले ही खोज लिया। आपके स्कूल पहुंचने से पहले वो अपना नया सिलेबस लागू कर चुके हैं। सिलेबस से मतलब किताब लिखने वाले राइटर के नाम से होता है।
असल में किताबों में केवल राइटर का नाम बदलता है। उन किताबों के भीतर लिखी चीजों में एक प्रतिशत का भी बदलाव नहीं होता है। लेकिन, स्कूलों ने कमीशन के लिए प्रकाशकों से किताबो के सेट बेचने के लिए, लिए होते हैं। उनको बेचने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
किताबों के दाम प्रिंट रेट पर ही वसूला जा रहा है। स्थिति यह है कि अगर 1.25 की किताब है तो उसके भी दो रुपये मांग रहे हैं। वही हाल कापियों का है। स्कूल वाले पहले पुस्तक भंडार वाले का नाम बता देते हैं। पुस्तकें बेचने वाले व्यापारी भी पूरी ठसक में होता है कि इनको लेना तो यहीं से होगा। कहीं जा भी नहीं सकते…कई बार तो अभिभावकों को धमका भी देते हैं। बच्चों को पढ़ाने की मजबूरी लोगों को लाचार कर देती है।
सरकार और सिस्टम को लकवा मार चुका है। इस पर ना तो शिक्षा विभाग कोई ध्यान देता है और इस तरह के गोरखधंधे पर रोक के लिए कोई निजाम बनाया गया है। कमीशन के इस खेल में अपने पेट काटकर अच्छी पढ़ाई के चक्कर में बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाने वाले मां-बाप डिप्रेशन में पहुंच जाते हैं।
किताबें ही महंगी हो तो कोई बात नहीं है। अभिभावक यह सोचकर खरीद लेते हैं कि एक बार का खर्चा है। लेकिन, जो हर साल डोनेशन, म्यूजिक, खेल, डायरी, व्यायाम और दूसरे कई तिकड़मबाजी लगातार फीस बढ़ाई जाती है, उसका बोझ हर महीने ढोना पड़ता है। इस साल पढ़ना और महंगा हो गया है।
अब फिर से किताबों पर आते हैं। जब हम छोटे थे, तो हमारी किबातें महारे पास कई-कई साल पुरानी होती थी। वही किताबें, पहले गांव के किसी बड़ भाई या दीदी ने पढ़ी होती हैं। फिर वही किताबें घूम-फिर कर हमारे पास भी आई और फिर हमनें भी अपने से छोटों को दे दीं। इस तरह किताबों के एक-दूसरे के पास जाने का सिलसिला चलता रहता था। लेकिन, अब उसी स्कूल की किताबें अगले साल उसी स्कूल में बैन हो जाती हैं। लोग जाएं तो जाएं कहां? करें तो करें क्या? कोई सुनने वाला नहीं है।