देहरादून : पूर्व CM हरीश रावत को राजनीति का माहिर खिलाडी यूं ही नहीं कहा जाता। हरदा जब भी कुछ कहते हैं, खबर बन जाते हैं। अब उन्होंने फिर कुछ ऐसा का है कि वो चर्चा में हैं और उनके कहे के बारे में लोग खूब बात भी कर रहे हैं। हरदा ने अपनी पुरानी बात को फिर दोहराया है।
फेसबुक पोस्ट में उन्होंने लिखा है कि एक बिंदु विचारार्थ बार-बार मेरे मन में आता है कि उत्तराखंड में राजनैतिक स्थिरता कैसे रहे! राजनैतिक दलों में आंतरिक संतुलन और स्थिरता कैसे पैदा हो! जब स्थिरता नहीं होती है तो विकास नहीं होता है, केवल बातें होती हैं।
मैं पिछले 21 साल के इतिहास को यदि देखता हूँ तो मुझे लगता है कि उत्तराखंड के अंदर राजनैतिक अस्थिरता पहले दिन से ही हावी है। उत्तराखंड में प्रत्येक राजनैतिक दल में इतने लोग हैं कि सबको समन्वित कर चलना उनके लिये कठिन है और कांग्रेस व भाजपा जैसे पार्टियों के लिए तो यह कठिनतर होता जा रहा है।
केंद्र सरकार का यह निर्णय कि राज्य में गठित होने वाले मंत्रिमंडल की संख्या कितनी हो, उससे छोटे राज्यों के सामने और ज्यादा दिक्कत पैदा होनी है। अब उत्तराखंड जैसे राज्यों में मंत्री 12 बनाए जा सकते हैं, मगर विभाग तो सारे हैं जो बड़े राज्यों में हैं, सचिव भी उतने ही हैं, जितने सब राज्यों में हैं। मगर एक-एक मंत्री, कई-2 विभागों को संभालते हैं, किसी में उनकी रूचि कम हो जाती है तो किसी में ज्यादा हो जाती है और छोटे विभागों पर मंत्रियों का फोकस नहीं रहता है।
उससे होता यह है कि जो छोटे विभाग हैं, उनकी ग्रोथ पर विपरीत असर पड़ रहा है, जबकि प्रशासन का छोटे से छोटा विभाग भी जनकल्याण के लिए बहुत उपयोगी होता है। उन्होंने लिखा कि मैंने कई दृष्टिकोण से सोचा और मैंने पाया कि उत्तराखंड जैसे राज्य के अंदर हमें कोई न कोई रास्ता ऐसा निकलना पड़ेगा, जिस रास्ते से राजनैतिक दल चाहे वो सत्तारूढ़ हो या विपक्ष हो, उसमें राजनैतिक स्थिरता रहे और एक परिपक्व राजनैतिक धारा राज्य के अंदर विकसित हो सके और एक निश्चित सोच के आधार पर वो राजनैतिक दल आगे प्रशासनिक व्यवस्था और विकास का संचालन करें।
यहां मेरे मन में एक ख्याल और आता है, क्योंकि तत्कालिक संघर्ष से निकले हुये लोगों के साथ बातचीत कर मैंने कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में 2002 में विधान परिषद का गठन का वादा किया था, तो कालांतर में कतिपय कारणों के कारण गठित नहीं हो पाई और उसके बाद के जो अनुभव रहे हैं, वो अनुभव कई दृष्टिकोणों से राज्य के हित में नहीं रहे हैं।
इसलिये मैं समझता हूं कि फिर से इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता पड़ रही है कि विधान परिषद होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए! उन्होंने कहा कि मैं समझता हूं कि 21 सदस्यीय विधान परिषद उपयोगिता के दृष्टिकोण से उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए बहुत लाभदायी हो सकती है। राजनैतिक स्थिरता पैदा करने वाला कारक बन सकती है।
इससे राज्य में नेतृत्व विकास भी होगा, इस समय, समय की परख के साथ और उत्तर प्रदेश के समय से जिन लोगों ने थोड़ा सा अपना व्यक्तित्व बना लिया था, वो तो आज भी राज्य के नेतृत्व की लाइन में सक्षम दिखाई देते हैं। लेकिन, जो लोग उत्तर प्रदेश के समय से जिन्हें विशुद्ध रूप से हम यह कहें कि वो उत्तराखंड बनने के बाद राजनीति में प्रभावी हुए हैं तो ऐसे व्यक्तित्व कांग्रेस और भाजपा में कम दिखाई देंगे।