Friday , 22 November 2024
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मंगलेश डबराल को कुमार विश्वास की श्रद्धांजलि, पढ़ें…कवि व्योमश शुक्ल का लेख

अलविदा श्री मंगलेश डबराल

विदा कवि “कितने सारे पत्ते उड़कर आते हैं चेहरे पर मेरे बचपन के पेड़ों से एक झील अपनी लहरें मुझ तक भेजती है लहर की तरह काँपती है रात और उस पर मैं चलता हूँ चेहरे पर पत्तों की मृत्यु लिए हुए लोग जा चुके हैं रोशनियाँ राख हो चुकी हैं..!
 
देश के महान कवियों में गुने जाने वाले उत्तराखंड के टिहरी जिले के निवासी कवि मंगलेश डबराल के निधन पर देश के साहित्यकारों ने तो दुःख जताया ही, दुनियाभर के लेखकों ने भी उनको श्रद्धांजलि दी है. मंगलेश डबराल का कोरोना संक्रमण के कारण निधन हो गया. उन्होंने पहाड़ पर लालटेन जैसा कविता संग्रह दिया, जिसकी दुनियाभर में चर्चा होती है. उनके निधन पर उत्तराखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार महावीर रवांल्टा ने भी शोक प्रकट किया.
 
 
विदा श्री मंगलेश डबराल🙏विदा कवि

 

कवि व्योमश शुक्ल का नव भारत टइम्स में एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने मंगलेश डबराल जी के बारे में विस्तार से लिखा है। वही लेख हम यहां साभार प्रकाशित कर रहे हैं।…

इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि आज की हिंदी कविता के केंद्रीय महत्व के वास्तुकार कवि-गद्यलेखक मंगलेश डबराल अब हमारे बीच नहीं हैं। बीती 27 नवंबर की रात सांस लेने में दिक्क़त होने पर उन्हें गाज़ियाबाद के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर तब तक उनका मेहनतकश जिस्म कोरोना से बुरी तरह संक्रमित हो गया था। कुछ दिन बाद उन्हें एम्स ले जाया गया, लेकिन शायद देर हो चुकी थी। डॉक्टरों की कोशिश और हिंदी समाज की दुआ क़ुबूल न हुई और अपने रोलमॉडल लेखक- कवि-संपादक रघुवीर सहाय के जन्मदिन- नौ दिसंबर की शाम 72 साल के मंगलेश डबराल नहीं रहे।

एक बड़े अर्थ में मंगलेश डबराल हिंदी में 1990 के बाद सामने आई युवा लेखकों की उस पीढ़ी के ‘रघुवीर सहाय’ ही थे, जिसने रघुवीर सहाय को नहीं देखा है। कविता, आलोचना, रिपोर्ताज़, यात्रा-संस्मरण, डायरी और संपादकीय जैसे लेखन के अनेक मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने के अलावा उन्होंने विज़नरी और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की उस कड़ी को बाज़ारवाद, उन्मादी राजनीति और नैतिक अधःपतन की तेज़ झोंक में टूटने से बचाए रखा, जिसका एक सिरा रघुवीर सहाय के पास था। इस सिलसिले में उन्होंने युवा कवियों और पत्रकारों के एक बड़े समूह का निर्माण किया।

शोक और सूनेपन की इस घड़ी में मुख़्तलिफ़ सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर उमड़ी श्रद्धांजलियों से यह बात भी साफ़ है कि आनेवाले समय में भी हिंदी के बहुत से लेखक-पाठक मंगलेश डबराल के बगैर दृश्य की कल्पना नहीं कर पाएंगे। गौरतलब है कि यह सिर्फ साहित्यिक मुद्दा नहीं है, बल्कि जीवन, संघर्ष और सुंदरता का एक वृहत्तर दृश्य है, जिसमें उनके व्यक्तित्व को रोज़ याद करते रहने की ज़रूरत बनी रहेगी।

बेशक, उनकी कविता भी रोज़ याद करने की चीज़ है। भारत की साधारणता की खूबसूरती और कोमलता और उसके रास्ते में आने वाले अवरोध जितनी प्रामाणिकता और भरोसे के साथ उनकी कविता में गुंथे हुए हैं, उसकी मिसाल ढूंढना मुश्किल है। आज की तारीख़ में अगर धर्मनिरपेक्षता समकालीन कविता के सबसे बड़े मुद्दों में से एक है तो इतने सीधे और तल्ख़ बिंदु तक ले आने में उनकी मशहूर कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ की केंद्रीय भूमिका है। 1992 और 2002 की घटनाओं से गुज़र चुके भारत में यह कविता कविकर्म का घोषणापत्र है।

यह धर्मनिरपेक्षता उन्हें हिंदी की पूर्ववर्ती कविता से विरासत या उपहार में नहीं मिली, बल्कि अपने साथी कवियों के साथ मिलकर उन्होंने इसे निर्मित किया था। यह प्रोएक्टिव, गैरतात्कालिक, गैरसमझौतापरस्त धर्मनिरपेक्षता अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी दुर्घटना या तबाही का इंतज़ार नहीं करती और स्थापित कलात्मक मूल्यों से अपने लिए किसी रियायत या छूट की मांग भी नहीं करती। इस बात के लिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास हमेशा उनका शुक्रगुज़ार रहेगा।

इसी तरह पूरे संकोच के साथ वह हिंदी कविता को बदलते और बढ़ाते रहे। उनके प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही, बल्कि एक नैतिक ज़िद से हमारा सामना होता था जो अपनी मौलिकता और सादगी से हमें अभिभूत भी कर लेता था।

मंगलेश डबराल हिंदी साहित्य के ईको सिस्टम से बहुत गहरे जुड़े हुए थे और उसमें किसी चोर दरवाज़े से घुसती चली आ रही कारोबारी मानसिकता और पाखण्ड के प्रदर्शन से बहुत चिंतित रहते थे। दरअसल, वह कभी भी कविता या साहित्य को विज्ञापन या प्रचार की वस्तु मानने के लिए तैयार नहीं हो पाए।

एक जगह वह लिखतें हैं : ‘एक बुलेटिन में आठ या नौ लोकार्पणों की तस्वीरें छपी हैं। एक जैसी मुद्रा में, हाथों में किताबे थामें, उन्हें सीने से सटाये हुए विचार मुद्रा में खड़े प्रतिष्ठित लोग। फिलहाल इसे हिंदी का पेज थ्री भी कहा जा सकता है.अभी वह रंगीन नहीं हुआ है। ऐसे समारोहों में पुस्तकों के रचनात्कर प्रायः कुछ नहीं कहते, कुर्सी पर प्रतिमा की तरह बैठे रहते हैं और इस तरह कर्मकांड संपन्न हो जाता है। हिंदी साहित्य में यह कौन सा युग है ? लोकार्पण युग ?’

सत्तर के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफ़लपानी गांव से चलकर इलाहाबाद, लखनऊ और भोपाल होते हुए मंगलेशजी दिल्ली पहुंचे; बचपन, पहाड़ों, नदियों और अतीत के तमाम अनुभवों को अपने सीने में रखकर आजीविका और जज़्बे की ख़ातिर पत्रकारिता में आए और आख़िरी सांस तक एक कवि के साथ-साथ पत्रकार भी बने रहे।

उनकी ज़िंदगी से यह बात भी सीखी जा सकती है कि लेखक होने के लिए और कुछ नहीं, सिर्फ़ संवेदना और सचाई की ज़रूरत है। वे लोग जो लेखक बनने के सपने में छलांग लगाना चाहते हैं उन्हें मंगलेश डबराल की जिंदगी – उनकी मूल्यनिष्ठा, जिज्ञासा, आत्मसजगता, कोमल और अथक हठ और जज़्बे से बहुत कुछ सीखने और अपनाने को मिल सकता है।

मंगलेश डबराल मोहभंग और परिवर्तन की बेचैनी जैसी ज़िंदा और हिम्मती चीज़ों से बनकर आए थे। लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का एकमात्र पहलू नहीं है। एक नागरिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पराजयों से उनकी आत्मवत्ता लगातार टकराती रही। इस संघर्ष के बरक्स उन्होंने अपने गद्य लेखन से पॉप्युलर कल्चर की आलोचना और संगीत, यात्रा, भूमंडल, शहरों, आंदोलनों और कविता की समझदारी को मज़बूत और ईमानदार बनाने का काम किया।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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