Friday , 22 November 2024
Breaking News

Exclusive : उत्तराखंड में वन्यजीव संघर्ष, पर्यावरण व समाज का साझा और गंभीर सवाल…?

  • प्रमोद शाह
  • वन्यजीवों के साथ संघर्ष के तीन क्षेत्र.

  • वन्यजीव संघर्ष से हुआ नुकसान. 

‘गढ़वालेे’ मा बाघ लागो, बाघ की डैैर’.

‘ब्याखूलीए जये घर चैय्ला,अज्याल बाघ की भै डर’.

गढ़वाल का लोकगीत हो या कुमायूं की लोकोक्ति। दोनों ही बराबर रूप से उत्तराखंड के समाज में बाघ की उपस्थिति, उसके भय और बाघ के साथ जिंदा रहने के हमारे ऐतिहासिक कौशल को दर्शाते हैं। वन्यजीवों के साथ संघर्ष। इस संघर्ष के बीच खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की परंपरागत निर्भरता हमारे ग्रामीण समाज के  पर्यावरण संतुलन को दर्शाते हैं।

 

वन्यजीवों के साथ संघर्ष के तीन क्षेत्र

एक शिवालिक और मध्य हिमालय क्षेत्र में गुलदार का आतंक, जिससे राज्य के 10 पर्वतीय जनपद प्रभावित रहते हैं। दूसरा भाबर में हाथी से संघर्ष, इसके तहत रामनगर, कोटद्वार और राजाजी नेशनल पार्क और हल्द्ववानी का गोला पार, नन्धौर का क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित रहता है। तीसरा हरिद्वार और तराई में चीता (टाइगर) कई बार समस्या बन कर उभरा है। लेकिन, राज्य की मुख्य समस्या गुलदार का हमला ही है, जिससे ग्रामीण जनजीवन पूरी तरह भयग्रस्त होकर अस्त-व्यस्त हो जाता है।

 

 

जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ

अभी आगरा खाल, नरेंद्र नगर क्षेत्र में 11 अक्टूबर को 7 वर्षीय स्मृति और 13 अक्टूबर को 7 वर्ष के रौनक को सांझ ढलते ही घर के आंगन से उठा कर आदमखोर गुलदार ने अपना निवाला बना लिया। इससे क्षेत्र में  व्यापक दहशत व्याप्त हुई और जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। पूरे इलाके में सांझ होते ही कर्फ्यू जैसे हालात  पैदा होने लगे। यह सुखद संयोग था कि आगरा खाल का यह नरभक्षी  दूसरी घटना के 2 घंटे के भीतर   ख्याति लब्ध  शिकारी  जॉय हुकिल की  गोली का निशाना बन गया, जिससे इस क्षेत्र में लोगों ने राहत की सांस ली गई।

 

वैज्ञानिक चिंतन की जरूरत

एक  गुलदार के मारे जाने से पर्वतीय  जनजीवन और वन्यजीव के संघर्ष का  समाधान  नहीं हो जाता, बल्कि  इस पूरी घटना से हमलावर हो रहे गुलदार, पर्यावरण और पर्वतीय समाज के सह अस्तित्व पर दोबारा से वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है।

वन्यजीव संघर्ष से हुआ नुकसान 

यदि हम 2017-18 स में घटित वन्य जीव संघर्ष का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि इस एक वर्ष में 85 व्यक्ति वन्य जंतु संघर्ष में मारे गए। 436 व्यक्ति घायल हुए। इस संघर्ष में 12546 पालतू जानवर मारे। जंगली जानवरों ने कुल 1497 हेक्टेयर उपज को नुकसान पहुंचाया। यह एक वर्ष की कहानी, हर वर्ष दोहराई जाती है। यहां सवाल सिर्फ आर्थिक नुकसान का नहीं है। अगर सिर्फ गुलदार के हमले की बात करें तो 2019 में उत्तराखंड में गुलदार के हमले की 13 घटनाएं हुई। 2020 में गुलदार के हमले की घटनाएं 19 का आंकड़ा पार कर चुकी हैं। पिछले दिनों देवप्रयाग बाजार में गुलदार की चहलकदमी का जो वीडियो वायरल हुआ। वह अन्य जानवरों के बड़ते दखल को दर्शाने के लिए काफी है।

कारण और समाधान 

पर्यावरण के प्रति जागरूकता और उत्तराखंड में लगातार वन क्षेत्र के विस्तार के कारण पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की संख्या में भौगोलिक क्षेत्र के अनुपात में अधिक वृद्धि हो गई है। जिस कारण गुलदार और मानव जीवन का संघर्ष तेज हो गया है। चूंकि गुलदार आबादी क्षेत्र से प्रेम करने वाला जानवर है। इसके कारण गांव और कस्बों के आसपास रहने में ही यह रुचि दिखाता है। लेकिन, आमतौर पर गुलदार मैनईटर नहीं होता है। कोई गुलदार तभी मैंन ईटर  होता है, जबकि वह बीमार हो, कोई दांत टूट जाए या वह खुद शिकार करने में सक्षम न रहे। तब आदमियों पर हमले  की घटनाएं बढ़ जाती हैं।

 

बंजर होकर जंगल ही हो गए

उत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्र का यह दुर्भाग्य जनक पहलू है कि वर्तमान में जंगल के साथ ही जो लगे हुए खेत हैं, वह भी बंजर होकर जंगल ही हो गए हैं। वहां उग आई  झाड़ियां, घास गुलदार को छुपने का मौका देते हैं। खेतों तक गुलदार की यह उपस्थिति सूअर और बंदरों के बाद पर्वतीय कृषि के संकट और अंततः पलायन को बढ़ाने में प्रमुख कारण हैैं।

 

ये हैं बड़ी नकामी

गुलदार के आतंक का सही आकलन न कर पाना, हमारे वन महकमे की एक बड़ी नाकामी है। तराई क्षेत्र या देश के अन्य टाइगर रिजर्व में इन जानवरों की गणना के लिए रेडियो कॉलर टैपिंग और कैमरा ट्रैप की सहायता लेकर उनकी जनसंख्या का सही-सही अनुमान लगाया गया है। जबकि पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की जनसंख्या का आंकलन करने की कोई भी तकनीक अथवा रणनीति अभी तक विकसित नहीं की गई है। ना ही नरभक्षी हो रहे कुल गुलदारों की पहचान और जीवित बचाव का कोई वैज्ञानिक तरीका विकसित किया गया है।

 

संरक्षित सूची के अनुसूची एक का जानवर

गुलदार वन्य जंतुओं की संरक्षित सूची के अनुसूची एक का जानवर है, जिसे मारे जाने की अनुमति आसानी से नहीं मिलती। फिर गुलदार को मार देना ही कोई समाधान अन्तिम समाधान भी नहीं है। आगराखाल के आदमखोर को मारने वाले प्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल जो कि वर्ष 2007 से व्यवसायिक शिकारी बने। वो अब तक 39 आदमखोर बाघों का शिकार कर चुके हैं। कहते हैं कि बाघ को मारने का सबसे अधिक दुख अगर किसी को होता है, तो वह उस शिकारी को होता है, जिसकी गोली से उस बाघ की मौत होती है। अंतिम समय में बाघ की तड़प  और उसके आदमखोर हो जाने की लाचारगी दोनों उसे अंदर तक झकझोरते रहते हैं। इसलिए बाघ को मारना उनका अंतिम विकल्प होता है।

 

ट्रैक करना बड़ा और कठिन काम

उससे पहले उसकी पहचान और उसे ट्रैक करना उससे बड़ा काम है, जिससे आदमखोर की जगह कोई निरीह वन्य  प्राणी ना मारा जाए। उत्तराखंड में इससे पहले के प्रसिद्ध शिकारी जिमकॉर्बेट के विषय में तो यह भी कहा जाता है कि वह बाघ को मारने का फैसला मजबूरी में ही लेते थे। उससे पहले बाघ के हमले से हुई हर भरपाई को वह खुद भरने के लिए तैयार रहते थे। जिम कॉर्बेट के हिस्से चंपावत की वह बाघिन जिसने 436 मासूमों को अपना निवाला बना दिया था। गुलाब राय रुद्रप्रयाग के  आदमखोर से मुक्ति, जिसके लिए वह आठ वर्ष अलग-अलग समय में रुद्रप्रयाग आते रहे और आखिर 2 मई 1926 को गुलाब राय के मैन ईटर से इलाके को मुक्ति दिलाने में कामयाब हुए। जिम कॉर्बेट ने कुल कितने बाघों को मारा यह साफ-साफ  कहीं दर्ज नहीं है। लेकिन, माना जाता है कि उन्होंने 12 आदमखोर बाघों को मारा था।

 

जॉय हुकिल के हिस्से यह संख्या 39

बहुत कम समय में जॉय हुकिल के हिस्से यह संख्या 39 तक पहुंच गई है, जिससे वह बेहद दुखी हैं और कहते हैं कि ‘हमें पर्यावरण और समाज दोनों को बचाना है। इसके लिए पर्यावरणविदों और समाज शास्त्रियों के साथ ही वैज्ञानिकों को निककनीक अपनाकर ग्रामीण जीवन की खुशहाली और वन्य जीवन की सुरक्षा के लिए एक साथ बड़े उपाय करने होंगे। इनमें सबसे पहला कदम तो गुलदार की गणना का ही होगा। यह काम कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं। वीट वाचर गुलदार के विचरण का ट्रैक चिन्हित कर वहां कैमरे लगाकर रिकॉर्डिंग कर गुलदार की संख्या के साथ ही बुजुर्ग और घायल हो रहे गुलदारोों कि समय पर पहचान कर उन्हें सुरक्षित रेस्क्यू कर हम ऐसा कर सकते हैं। इसके लिए सबसे जरूरी है कि ऐसा करने की इच्छा शक्ति की उम्मीद की जानी चाहिए।

 

कोई नया सुरक्षित रास्ता हमें देंगे

उत्तराखंड के ग्रामीण समाज में रोज घटित हो रही गुलदार हमले की घटनाएं शीघ्र कोई नया सुरक्षित रास्ता हमें देंगे, ताकि हम वन्यजीवों का सम्मान करने वाली कौम का अपना  सामाजिक खिताब बचाए रख सकें। पर्यावरण और समाज के संतुलन का एक नया मार्ग दे सकें। इसके लिए काम करना होगा। उम्मीद है सरकार और जिम्मेदार विभाग इस गंभीरता से काम करेंगे।

 

(नोट: लेखक पुलिस अधिकारी हैं। वे हमेशा गंभीर विषयों पर लिखते रहते हैं। केवल लिखते ही नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण सुझाव भी देते हैं।)

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

Check Also

उत्तराखंड : ना चुनाव होंगे, ना कार्यकाल बढ़ेगा, क्या जिला पंचायत अध्यक्ष, प्रमुख और प्रधान बनेंगे प्रशासक?

देहरादून: उत्तराखंड में इस साल पंचायत और नगर निकायों के चुनावों का होना संभव नजर …

error: Content is protected !!