Friday , 11 October 2024
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आधुनिकता में खोते रिश्तों की चिंता…

यह लेख पत्रकार और टिहरी जिले के लिखवार गांव के ग्राम प्रधान चंद्र शेखर पैन्यूली ने लिखा है। शेखर की समाजिक, राजनीतिक मसलों और इतिहास पर गहरी पकड़ है। हाल कि दिनों में उन्होंने रिश्तों को लेकर जो कुछ महसूस किया है। यहां उन्होंने वही अनुभव साझा किया है…।

आज के आधुनिक युग में हमारे समाज में कई नए बदलाव तेजी से आए हैं। अब रिश्तों में निजी संबंधों में बहुत अधिक प्रगाढ़ता, बहुत अधिक आत्मीयता जैसी बात बहुत कम देखने को मिल रही है। पहले लोग बहुत दूर के रिश्तेदारों से भी बड़ी आत्मीयता से मिलते थे, लेकिन अब बेहद नजदीकी रिश्तों में भी मिलने जुलने की औपचारिकता अधिक दिखने लगी है। साथ ही रिश्तों में पहले के जैसे सम्मान देने की परंपरा खत्म सी होती जा रही है। आज के जमाने कई बेटे-बहू अपने सास ससुर को बोझ समझने लगे हैं।

कई घरों की स्थिति ये है कि बेटे-बहू बड़े बड़े ओहदों पर हैं, लेकिन माता पिता अलग रहकर अपनी बुढ़ापे की पेंशन से गुजारा कर रहे हैं। कई बुजुर्ग माता-पिता अच्छे होनहार बेटे-बहू के होते हुए भी एकांकी जीवन जीने को मजबूर हैं। दूसरी बात यदि कोई अपने बुजुर्गों को साथ रख भी रहे हैं, तो घर में बुजुर्गों के साथ सही व्यवहार नहीं होना भी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है।

अपने सास-ससुर के सामने बहुएं आधुनिक फैशन के नाम पर बेहूदा परिधानों को पहनकर आने में कोई शर्म महसूस करने के बजाय अपने को बहुत अधिक मॉर्डन समझ रही हैं, जबकि कम से कम हमारे पहाड़ों में बुजुर्गों के सम्मुख महिलाएं, बेहद शालीनता के साथ और सभ्य तरह से ही पेश आती थी। मॉर्डन बनने के नाम पर उलूल-जुलूल वस्त्रों को पहनकर महिलाओं को अपने ही बुजुर्गों के सम्मुख आने में कोई हिचक नहीं हो रही है।

जींस, टी-शर्ट तो अब आम परिधान में आ गया, जिसे अब समाज में एक तरह से मूक सहमति मिल ही गई। अब बहुएं बिना संकोच जींस, टी-शर्ट पहनकर अपने सास ससुर,मामा ससुर या जेठ जैसे रिश्तों के सम्मुख पहनकर आराम से वार्तालाप करती है, जिसे सब सामान्य ही रूप में लेने लगे हैं। पहले की महिलाएं अपने पारंपरिक परिधानों के अलावा यदि गलती से कभी किसी ने अपने घर के अंदर कुर्ता पायजामा सूट सलवार पहनती थी और अचानक से उनके देवर तक आ जाते तो वो उन कपड़ों में उनके सम्मुख तक न जाती तो सास ससुर या जेठ या मामा ससुर के सम्मुख तो जाने का कोई मतलब ही नहीं था।

जेठ और मामा ससुर की तो दूर की छाया से तक परहेज किया जाता था। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उसी दौर में रहा जाए, कम से कम इतनी सभ्यता तो रहे कि देसरों को आपको देखकर नजरें ना चुराना पड़े। लेकिन आज के वक्त अब रिश्तों में वो बात रही नहीं,बल्कि जेठ हो,मामा ससुर हो या अपने सास ससुर सभी रिश्ते ही बदल गए, जेठ भैया हो गए, मामा ससुर मामाजी बन गए, सास-ससुर माजी-पिताजी हो गए।

अब कई बार समझ नहीं आता किस मां पिताजी को संबोधित कर रहे है। ये बात महिलाओं के लिए इसलिए मुझे कहनी पड़ रही क्योंकि हर बच्चे की पहली शिक्षक मां होती है। हर परिवार की मुख्य धुरी महिला होती है। घर में सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक की हर गतिविधि महिलाओं पर ही निर्भर रहती है। अब जब हमारी बेटी-बहू अपने पैतृक विरासत में मिले पवित्र रिश्तों की अनदेखी कर रही है। हालांकि हर कोई अनदेखी नहीं कर रहे हैं पर बड़ी संख्या में अनदेखी हो रही है।

सास-ससुर को बोझ समझना,अपने ससुराल के देवर जेठ या उनके परिवारों के प्रति कोई विशेष लगाव न रखना, बल्कि उन्हें नीचा दिखाने हेतु प्रयास करना, अपनी ननद, जेड़सासु (पति की बड़ी बहन) के प्रति भी कोई विशेष अपनापन न रखना आदि बातें बताती हैं कि आज के दौर में बहुत अधिक परिवर्तन हर घर परिवार से शुरू होकर समाज में आ गया है।

संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। एकल परिवार में लोग रहना अधिक पसंद कर रहे हैं, जो भाई आर्थिक रूप से कमजोर हो गया या गरीब रह गया वो पीछे ही छूट रहा है। उसे उठाने या सहारा देने के बजाय, उससे बहुत अधिक मतलब नहीं रखा जा रहा है। अपने गांव की पैतृक विरासत को ठुकराया जा रहा है। आज आधुनिकता के नाम पर कई महिलाएं अपने सास-ससुर, जेठ, मम्या ससुर आदि के सामने अपने निजी कमरों में पहनने लायक वस्त्रों को पहनकर जाने में कोई हिचक नहीं हो रही है।

बदलता दौर बेहद खतरनाक है। आज जो बहू अपने सास ससुर को बोझ समझ रही अपने संयुक्त परिवार को अपनी बंदिशें समझ रही,आने वाले समय में वो अपनी संतान से कैसे अपनी सेवाभाव की अपेक्षा रख पा रही होगी, जो अपने बड़े बुजुर्गों के सम्मुख बेहद तंग वस्त्रों को पहनने में कोई गुरेज न कर रही हो, जो अपने पैतृक रीति रिवाजों को बोझ समझ रही हो, वो आने वाली पीढ़ी को पहले तो क्या संस्कार और क्या नैतिक शिक्षा देगी।

साथ ही अपने बुढ़ापे के लिए कैसे अपने बच्चों से सेवाभाव की उम्मीद करती हो, जो अपने सास ससुर को एक बार का खाना देने में भी कतराती हो,वो कैसे उच्च आदर्शों की बात कर सके।हमारे पहाड़ों की, हमारे गढ़वाल की संस्कृति और रीति रिवाज हमारी माताओं बहनों ने ही सदैव जिंदा रखा,पुरुष तो पहले से ही घर परिवार के पालन पोषण हेतु अपने घरों से बाहर ही रहे।

लेकिन, महिलाओं ने भले ही गरीबी में अपने बच्चों का लालन पालन किया हो,लेकिन अपनी उच्च मर्यादाएं बनाए रखी। अपने बच्चों को अपनी महान परंपरा को कायम रखने की शिक्षा दी। बुजुर्गों को अपनी हैसियत के मुताबिक खान-पान, उनकी देखभाल की। आज के युग में रिश्तों में बड़ी दूरी हो रही है। कई बेटियों, कई बहुओं ने अपने हंसते-खेलते परिवार को तक त्याग दिया।

तमाम प्रेम प्रसंग की कहानियां। रात-रात भर ऑनलाइन रहकर अपने घर परिवार के बारे में न सोचना या सिर्फ अपने को ही सर्वश्रेष्ठ समझना आज की कई पढ़ी लिखी महिलाओं की कहानी बन रही है,जो एक चिंतनीय विषय है। जबकि हम भूल रहे है हमारी बेटियां,हमारी बहुएं भूल रही है कि हम रामी बौराणी की वंशज हैं। हम महान सैन्य परंपरा के निर्वहन करने वाले महान वीर सपूतों के वंशज हैं। हम तीलू रौतेली के वंशज हैं, हम देवभूमि के बच्चे हैंं, हम उस महान परंपरा के वाहक हैं, जिसमे पितरों को सबसे बड़ा देवता माना जाता है।

हम परिवार तो अपने पूरे गांव, पूरे क्षेत्र को परिवार की तरह स्नेह करने वाले महान लोगों के बच्चे हैं। हमारी भूमि वीर भड़ों की भूमि है। हमारी भूमि देवी-देवताओं सहित देश के वीर सपूतों की भूमि है। हम देखा-देखी में किस राह पर जा रहे हैं ये चिंतन की बात है,आखिर अपनो से अपने परिवार से दूर रहकर भला कैसे सुकून मिलता हो,आखिर कैसे वो मां पिता बोझ हो जिन्होंने आज की बहू के पति को जन्म दिया पाला-पोसा, शिक्षा दी और आज जिस मुकाम पर है उसकी राह दिखाई होगी,आज कैसे वो बड़ा भाई अनजान हो गया, जिसने अपने दो वक्त के खाने को सही से न खाया होगा।

अपना गुज़ारा सीमित रूप से इसीलिए किया होगा कि उसके छोटे भाई बहन सही से खा सके, सही पहन सके, इसी चाह में कई बड़े भाई गरीब तक हो गए और आज उन्ही भाइयों से बहुत पीछे रह जाए जिन्हे उन्होंने बच्चों की तरह पाला पोसा हो। आज की आधुनकित्ता के नाम पर नग्नता को बढ़ावा बिल्कुल नहंी मिलना चाहिए। घर परिवार के रिश्तों में, समाज में आगे बढ़ने की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो लेकिन अपनी मान मर्यादाओं को नहीं छोड़ना चाहिए। हमंे स्मरण होना चाहिए कि हम एक महान वैभवशाली परंपरा के वाहक हैं।

चंद्रशेखर पैन्यूली
प्रधान लिखवार गांव
प्रतापनगर टिहरी गढ़वाल।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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