देहरादून: मसला भू-कानून से जुड़ा है। राज्य के पूर्व सीएम लगातार भू-कानून का विरोध कर रहे हैं। यहां तक कि वो अपने ही सीएम के फैसले को भी गलत ठहरा रहे हैं। बावजूद, इसके उनका कहीं विरोध नहीं हो रहा है। उनके बयान भी वायरल नहीं हो रहे हैं। लेकिनन, कॉमरेड इंद्रेश मैखूरी के नो साथ पुराने एक बयान के स्क्रीनशॉट को वायरल किया जा रहा है। ये हरकत किसकी है, कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन, एक बात साफ है कि इसको भाजपा और उससे जुड़े लोग वायरल कर रहे हैं।
कहा यह जा रहा है कि यह कॉमरेडों को दोहरा चऱित्र है, लेकिन इस तरहर के आरोप लगाने वालों को शायद यह पता नहीं है कि कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी हमेशा से राज्य की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। उन्होंने राज्य आंदोलन से लेकर आज तक लगातार उत्तराखंड का विरोध करने वाले और राज्य को बर्बादी की ओर ले जाने वालों को आडे हाथों लिया है। ऊपर फोटे में आज तक के स्क्रीनशॉट में लाल घेरे उनके बयान की दो लाइनें लिखी गई हैं। उसके बगल में दो और फोटो हैं, जिनमें उनका पूरा बयान और स्क्रीनशाट वाली लाइनें नजर आ रही होंगी।
खुराफातियों को इंद्रेश मैखुरी के भू-कानून से जुड़े बयानों और लगातार लिखने से दिक्कतें हो रही हैं। उनका कहना है कि ये वो लोग हैं, जिनको उत्तराखंड को लूटना है। जो चाहते हैं कि राज्य की जमीनों को बेचकर इस राज्य को बाहरी लोगों के हवाले कर दिया जाए। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र के हालिया बयानों को सुन और पढ़कर आसानी से समझ आ जाएगा कि वो लगातार भू-कानून का विरोध कर रहे हैं। जबकि उत्तराखंड में भू-कानून के साथ ही मूल निवास की लड़ाई को भी फिर से एक आंदोलन के रूप में खड़ा करना होगा।
2012 का पूरा बयान
उत्तराखंड सरकार ने ऐलान कर दिया है कि राज्य बनने के दिन पर यहाँ निवास करने वाला व्यक्ति यहाँ का मूलनिवासी माना जाएगा.पूरे देश में जो व्यवस्था संविधान सम्मत तरीके से लागू है,उसके अनुसार 1950 तक किसी राज्य में निवास करने वाले व्यक्ति वहाँ के मूल निवासी माने जाते हैं.इस तरह देखा जाए तो उत्तराखंड में मूल निवासी की एकदम नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है.ये ऐसी परिभाषा है जो मूल निवासी होने और नहीं होने के अंतर को धुंधला करने वाली है.
राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मूलभूत सुविधाएँ मिलनी चाहिए.भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(म) और (ह) व्यक्ति को देश में कहीं भी निवास करने और व्यवसाय करने की स्वतंत्रता देता है.ये किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है.इसलिए राज्य में बाहरी लोगों के आने के खिलाफ हो-हल्ला मचाना न केवल संविधान विरोधी और गैरकानूनी है बल्कि ये एक तरह से अंध क्षेत्रियातावादी उन्माद फ़ैलाने का उपक्रम है.लेकिन राज्य में पीढ़ियों से बसे हुए लोगों के जल,जंगल,जमीन जैसे संसाधनों पर पुश्तैनी हक-हकूक होते हैं,जो केवल मूल निवासियों को ही हासिल होते हैं.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की श्रेणियाँ भी हर राज्य अलग-अलग तय करता है.सब को मूल निवासी मान लेने से अन्य राज्य में सामान्य श्रेणी कि कोई जाति,उत्तराखंड में आरक्षित श्रेणी में हो तो इसके दुरूपयोग की संभावना रहेगी.खास भौगौलिक स्थितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी रहना व्यक्ति के रूप रंग से लेकर सारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है.जैसे कद का छोटा या लंबा होना.
इसी भौगालिक विशिष्ठता के चलते ही उत्तराखंड के लोगों को सेना में भर्ती होने में कद और सीने की चौड़ाई में छूट मिलती रही है,जो कि उत्तर प्रदेश या दक्षिण के व्यक्ति को नहीं मिलती.जब सब को मूल निवासी मान लिया जाएगा तो बाहरी प्रदेशों से यहाँ बसे लोग भी जल,जंगल,जमीन जैसे पुश्तैनी हक-हकूकों और सेना में छूट पर भी दावा जता सकेंगे,ये अलग उत्तराखंड राज्य के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर देगा.
उत्तराखंड राज्य की मांग अलग राज्य की मांग नहीं थी,ये पर्वतीय राज्य की मांग थी.जरुर बाल ठाकरे-राज ठाकरे मार्का पर्वतीय राज्य नहीं माँगा जा रहा था,जिसमें बाहरी होने के नाम पर किसी भी गरीब,मजदूर या बेरोजगार को धून दिया जाया.ये विषम भौगौलिक परिस्थितियों के अनुरूप विकास व उसमें हिस्सेदारी और विशिष्ठ सांस्कृतिक पहचान का आन्दोलन था.
आज जो दिक्कत पैदा हो रही हैं,उसकी पृष्ठभूमि यहीं से तैयार हुई.जब राज्य बना तो वो भाजपा-कांग्रेस के कुचक्र के चलते, पर्वतीय राज्य नहीं था.बल्कि हरिद्वार की जनता के विरोध के बावजूद जबरन उन्हें उत्तराखंड में शामिल किया गया.पहाड़ में जनसँख्या कम होने के चलते विधान सभा सीटों का घटना हो या फिर स्थायी राजधानी पहाड़ में बनाने का सवाल हो,दिक्कतें तो उत्तराखंड के पर्वतीय राज्य ना होने के चलते ही हुई हैं.
इस पूरे प्रकरण में एक और सवाल जो विचारणीय है वो, यह कि मूल निवासी होने और नहीं होने का अंतर तो पुश्तैनी हक-हकूकों पर अधिकार से पैदा होता है.पूरे देश की तरह ही उत्तराखंड भी संसाधनों के लुटेरों की ऐशगाह बना हुआ है.जल,जंगल,जमीन जैसे संसाधनों को कौडियों के मोल नीलाम किया जा रहे हैं.जिनके मूल निवासी होने के हक खत्म होने की चर्चा जोर-शोर से हो रही है,वे मूल निवासी का अधिकार छिनने से पहले ही संसाधनों से बेदखल हो कर अपनी ही जमीन पर शरणार्थी वाली स्थिति में धकेले जा रहे हैं.मूल निवास के मुद्दे को अपनी अंध-क्षेत्रीयतावादी राजनीती के लिए खाद-पानी के रूप में देखने वालों का ध्यान इस तरफ तो नहीं जाता.
-इन्द्रेश मैखुरी
गढ़वाल सचिव,भाकपा(माले)