प्रमोद शाह…
उत्तराखंड संघर्ष के 100 साल: उत्तराखंड में टिहरी रियासत को छोड़ दें, तो राजे-रजवाड़ों का इतिहास बहुत उल्लेखनीय भी नहीं है। 1815 में गोरखाओं से सत्ता अंग्रेजों को स्थानांतरित होने के लगभग 100 साल बाद तक उत्तराखंड खामोश रहा। (1857 में चंपावत के कालू महर के बागी दल को छोड़कर) उत्तराखंड में संघर्षों से जो जन चेतना जागृत हुई। वही उत्तराखंड की जनता का जीवंत इतिहास है। इन 100 वर्ष (1920-2020) के कालखंड में हमारी आजादी का संघर्ष, आजादी के उपरांत उत्तर प्रदेश में विकास के लिए छटपटाहट और संघर्ष के साथ ही अलग उत्तराखंड राज्य का संघर्ष भी छिपा हुआ है।
इतिहास के अधिकांश नायक हमारे बीच
इस पूरे इतिहास के अधिकांश नायक आज भी हमारे बीच हैं। यदि वह नहीं भी हैं, तो उनसे जुड़े हुए अनुभव उनकी पीढियां हमारे बीच हैं . इस पूरे समय को सामान्य जनता के इतिहास के रूप में हम आपसे बातचीत के जरिए आगे बढ़ाएंगे . आजादी के समय कुली बेगार(बागेश्वर ) डोला पालकी (उपरी – गढवाल) जंगल के आंदोलन ,सड़क के आंदोलन (1936) फिर 1942 के बाद सल्ट ,सालम ,झंडा आंदोलन पौडी , के साथ-साथ जो दूरदराज की घाटियों में आजादी के लिए सीधा संघर्ष हुआ उस पर भी बात करेंगे ।
उत्तराखंड में सामाजिक आंदोलन
आजादी 1947 के बाद लगभग 20-22 वर्ष उत्तराखंड में सामाजिक आंदोलनों के रूप में एक सुस्ती का दौर देखा जाता है। 1969 से समाज की बेचैनी फिर बडती है। इस साल गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक नशे के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन होता है। जिससे कालांतर में उत्तराखंड के 9 जिलों में मध्य-निषेध लागू होता है। स्टार पेपर मिल की सरकार के साथ मिलकर उत्तराखंड के जंगलों की लूट-खसौट के विरुद्ध नैनीताल क्लब अग्निकांड ने उत्तराखंड में बन आंदोलनों की भूमिका तैयार की। ऐतिहासिक चिपको आंदोलन प्रारंभ हुआ, जिसने पर्यावरण की चेतना के सवाल को अंतरराष्ट्रीय प्रश्न बनाया। स्वामी मन्मननाथ का उत्तराखंड आगमन, यूनिवर्सिटी का आंदोलन, वन आन्दोलन के संघर्ष, भूख हड़तालद्व सड़क आन्दोलन (कुंड, चोपता मंडल-गोपेश्वर पुराने मार्ग पर सडक), खुट-खुठानी, सूट विनायक, जन संघर्ष मार्ग (एकेश्वर ) जनता ने श्रमदान से तैयार किए थे।
नशा नहीं रोजगार-1984
नशा नहीं रोजगार-1984 नशे के बिरद्ध दूसरा आन्दोलन। फिर 1994 में उत्तराखंड में शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के विरुद्ध और उत्तराखंड के छात्रों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की मांग के लिए भी खड़े छात्र आंदोलन का उत्तराखंड राज्य आंदोलन में परिवर्तित हो जाना, खटीमा, मसूरी मुजफ्फरनगर जैसी बड़ी कुर्बानियों के बाद, सालों-साल गांवो में सुलगाता उत्तराखंड, उत्तराखंड का लगातार जागृत रहना। इस जन-जागरण के दबाव से 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन, राज्य गठन के 10 सालों के भीतर ही खुद को ठगे जाने का एहसास। गांव में पलायन की मार, परंपरागत खेती का विनाश, सुअर, बंदरो का राज, गैरसैंण स्थाई राजधानी के लिए सतत संघर्ष..आगे क्या हो विकास और संघर्ष की राह ?
नोट: उत्तराखंड के 100 साल के इस सफर को आम आदमी की भाषा में समझ कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। इस मंच पर पिथौरागढ़, चंपावत, उधम सिंह नगर, हरिद्वार और जौनसार भावर के ऐतिहासिक किस्से और घटनाक्रमों का आभाव है। सभी साथी मार्गदर्शन करेंगे और जो भी त्रुटियां हो रही होंगी, उन्हें सुधारते चलेंगे। टिहरी के ढंडक, तिलाडी और आजादी की कहानी और टिहरी नरेश के जनपक्ष पर भी बात होगी।
(लेखक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं।)