देहरादून: ऐसे जंगल जहां, आम लोगों के जाने पर पाबंदी है। उन जंगलों में मजारें और समाधियां किसके कहने पर बनी रही हैं। कौन है, जो इनको पनाह दे रहा हैं। आखिर उन जंगलों में कैसे निर्माण हो रहा है, जहां आम लोग जा तक नहीं सकते।
वशेषकर तराई और भाबर क्षेत्र के जंगलों में पिछले 10-15 सालों में तेजी से मजार और दरगाहें बनी हैं। इनमें बाकायदा धार्मिक आयोजन होने लगे हैं, जिससे जंगल की शांति और वन्यजीवन के लिए खतरे की घंटी बजी है।
दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार मामला संज्ञान में आने के बाद अब वन मुख्यालय ने इसकी जांच कराने का फैसला लिया है। वन विभाग के मुखिया विनोद कुमार सिंघल के अनुसार वन क्षेत्रों में ये स्थल कब-कब स्थापित हुए, क्या किसी को वन भूमि लीज पर दी गई या फिर ये अवैध रूप से बने हैं, ऐसे तमाम बिंदुओं पर सभी वन प्रभागों और संरक्षित क्षेत्रों के निदेशकों से रिपोर्ट मांगी जा रही है।
जंगलों में केवल आरक्षित वन क्षेत्रों, बल्कि राजाजी से लेकर कार्बेट टाइगर रिजर्व तक के सबसे सुरक्षित कहे जाने वाले कोर जोन तक में ऐसे स्थल पनपे हैं। राजाजी टाइगर रिजर्व के मोतीचूर, श्यामपुर, धौलखंड और कार्बेट टाइगर रिजर्व के कालागढ़, बिजरानी जैसे दूसरे क्षेत्र भी इसकी चपेट में हैं।
ऐसी ही स्थिति तराई और भाबर के आरक्षित वन क्षेत्रों की भी है, जहां बड़ी संख्या में मजार, दरगाह, समाधियां व अस्थायी छोटे मंदिर बने हैं। कई स्थानों पर ऐसे स्थलों के बोर्ड सड़क अथवा पैदल मार्गों पर देखे जा सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जंगल के जिन क्षेत्रों में आमजन को आने- जाने की मनाही है, वहां ये स्थल कैसे बन गए। इससे विभाग की कार्यशैली पर भी प्रश्नचिह्न लग रहे हैं।
सवाल यह है कि जब ये मजारें और समाधियां बनाई जा रही थी, तब वन विभाग क्या कर रहा था। अब तराई और भाबर क्षेत्र के जंगलों में यही लापरवाही भारी पड़ने लगी है। आशंका जताई जाने लगी है कि जंगल में ऐसे स्थल बनाकर इन्हें कमाई और वन भूमि में कब्जे का माध्यम तो नहीं बनाया जा रहा। धार्मिक आयोजन की आड़ में जंगल में कौन आ-जा रहा है, इसका कोई ब्योरा नहीं है। इस सबके चलते वन विभाग की नींद उड़ी है।
उसके संज्ञान में ये भी आया है कि इन स्थलों में होने वाले आयोजनों में तेज रोशनी व लाउडस्पीकर का उपयोग होने से वन्यजीवन में खलल पड़ रहा है। वन विभाग से मिली जानकारी के अनुसार वन क्षेत्रों में कुछ धार्मिक स्थल वन अधिनियम-1980 के अस्तित्व में आने से पहले के भी हैं। बाद में कुछ स्थलों के लिए भूमि लीज पर भी दी गई थी, लेकिन बाद में ऐसा करना बंद कर दिया गया था। जंगलों में बड़ी संख्या में ऐसे स्थल सामने आने की बात तो विभाग स्वीकार कर रहा, लेकिन ये कैसे अस्तित्व में आ गए, इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है।