- प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’
देवलांग! स्थानीय लोक परंपराओं में देवलांग के रूप में जिस देवदार के पेड़ को जलाया जाता है, वह कोई साधारण नहीं, बल्कि ज्योतिर्लिंग का प्रतिरूप माना जाता है। यह बातें पुराणों में भी वर्णित हैं। देवलांग कब से मनाई जाती है, यह कोई नहीं जानता। लेकिन, यह पर्व पिछले कई पीढ़ियां मनाते हुए आ रही हैं। वर्तमान पीढ़ी के सबसे अधिक बजुर्ग लोग भी यही कहते हैं कि उनके दादा-परदादा भी यही कहा करते थे कि देवलांग के शुरू होने की कथाएं वह भी अपने बुजुर्गों से सुना करते थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देवलांग महापर्व कितना पुरातन है। इस साल देवलांग पर्व एक दिसंबर को मनाया जाएगा।
अब पुराणों की बात करते हैं। लिंग पुराण और शिव पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु के बीच विवाद हो गया था। माया के मोह में आकर ब्रह्मा जी भगवान विष्णु से झगड़ने लगे थे। इस पर दोनों के बीच विवाद बढ़ता चला गया। इसका अंत ना होता देख वहां एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुए, जिसका ना तो आदि था, ना मध्य और ना अंत। ज्योर्तिलिंग से आवाज आई कि जो इस ज्योति के आदि या अन्त का पता लगाएगा वही बड़ा होगा।
तब दोनों ही देवता ज्योर्तिलिंग के आदि और अंत का पता लगाने कि लिए निकल पड़े। ब्रह्मा जी ने हंस का रूप धारण किया और आकाश की ओर चल पड़े और विष्णु जी वराह का रूप धारण कर पाताल की ओर। लेकिन, लंबा समय बीतने के बाद और हर तरह से प्रयास करने के बाद भी दोनों ही देव ज्योति के आदि और अन्त का पता नहीं लगा पाए। पुराणों के अनुसार अंत में भगवान ब्रह्मा व विष्णु ने भगवान शिव की स्तुति की और इस तरह से विवाद का अंत हो गया। इसी ज्योर्तिलिंग का प्रतीक इस देवलांग पर्व को माना जाता है।
देवलांग महापर्व के संपन्न होने की प्रक्रिया के तहत एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया बहुत अहम है। देवलांग का आयोजन गैर गांव में राज रघुनाथ जी के दूसरे धाम में होता है। लेकिन, इसका समापन अन्तिम आहूति के साथ देवदार के घने जंगल के बीच स्थित देवाधिदेव महादेव श्री मडकेश्वर महादेव के मन्दिर में होता है। मड़केश्वर महादेव में गौड ब्रह्माण गौल गांव के निवासियों की गाय के दूध और घी से हवन-पूजन करते हैं। यह भी कहा जाता है कि पहले देवलांग को प्रज्जवलित करने के लिए यहीं से ओल्ला (मशाल) लाया जाता था।
ऐसा माना जाता है कि मड़केश्वर महादेव में साक्षात भगवान शंकर विराजते हैं। जहां अखंड ज्योति जलती रहती है, जिसके दुर्लभता से ही किसी को दर्शन हो पाते हैं। मंदिर से जुड़ी कई अन्य परंपराएं और मान्यताएं भी हैं। यह भी कहा जाता है कि इस मंदिर के बारे में बहुत कम ही चर्चा की जानी चाहिए। यह हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बुजुर्गों से सुनते आ रहे हैं।
ओल्ला बनाने की एक परंपरा रही, जो समय के साथ विलुप्त हो गई। बताया जाता है कि देवलांग के दिन कोटी और बखरेटी गांव में अनुसूचित जाति के लोग ओल्ला बनाकर भेंट किया जाता था। उसी को लेकर लोग देवलांग में पहुंचते थे और अंत में देवलांग खड़ी होने के बाद प्रज्ज्वलित किया जाता है।
ओल्ला बनाने में एक खास बात का ध्यान रखा जाता है। घर में जितने पुरुष सदस्य होते थे। उनके नाम से एक-एक ओल्ला बनाया जाता है। यह आराध्य देव महासू के नाम से बनाया जाता है। देवलांग के लिए गांव-गांव से प्रस्थान करने से पूर्व ओल्ला की पूजा-अर्चना की जाती है।
देवलांग के लिए देवदार के पेड़ को विधि-विधान से नटाण बंधु मंदिर परिसर में लाते हैं। रात्रि में बियांली के खबरियाण देवलांग को सजाने का कार्य करते हैं। एक तरह से कहा जाए तो देवलांग को लाने से और सजाने तक के असल हीरो यही लोग हैं। स्थानीय बोली में देव का अर्थ इष्ट देव और लांग का अर्थ खम्भे की तरह सीधे खड़े पेड़ से है।
इसमें लांग को ईष्ट देवता का प्रतीक मानकर पूजने के बाद अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसलिए इस पर्व का नाम देवलांग पड़ा। देवलांग को जलाने के लिए क्षेत्रवासी मशाल लेकर आते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में महासू कु ओल्ला कहा जाता है। रात के अंतिम पहर में जैसे-जैसे अंधेरा छंटता है। मंदिर परिसर में हजारों लोगों की भीड़ जमा होने लगती है। दोनों थोक के सभी ग्रामवासी ढोल-दमाऊ की थाप और रणसिंघे की गूंज के साथ ओल्ला लिए हुए झुमैलो, रास, तांदी, हारूल नृत्य करते-करते मंदिर पहुंचते हैं।
परंपरानुसार कोटी-बखरेटी के बजीरों की पिठांई लगाई जाती है। श्री राजा रघुनाथ अपने देवमाली पर अवतरित होकर छीमा-टिक्का देकर देवलांग को उठाने की अनुमति देते हैं। फिर होता है वह समागम जिस पर सबकी नज़रें टिकी होती हं।ै देवलांग को उठाने का तरीका और इस बीच जो उत्साह और शोर, राजा रघुनाथ के जयकार गूंजते हैं, वह सभी रोमांचित करता है। लाठी-डंडों से इतने बड़े पेड़ को उठाना कोई आम बात नहीं होती है।
साठी और पानशाही लकड़ी से बनी कैंचियों से देवलांग को उठाने का प्रयास करते हैं। इसमें देवलांग गिरती भी रहती है। परंतु जोश कम नहीं होता। अगर किन्हीं कारणवश देवलांग का शीर्ष भाग टूट जाता है, तो तुरंत दूसरी देवलांग लाई जाती है। देवलांग की अंतिम अग्नि का विसर्जन भगवान मड़केश्वर महादेव के मंदिर में किया जाता है।
इस महापर्व को देखने देशभर से लोग आते हैं और राजा रघुनाथ जी के दर्शन करके पुण्य के भागी बनते हैं। प्रत्येक घर में देवलांग पर्व पर पहाड़ी पकवान बनाए जाते हैं। चूड़ा कुठे जाते हैं, घरों को सजाया जाता है। रास्ते साफ किये जाते हैं। अतिथियों का सत्कार किया जाता है। रघुनाथ जी को महासू राजा, बड़ देवता, मुलुकपति, कुल्लू काश्मीरा, नागादेवा नामों से पुकारा जाता है।
मुलुकपति महासू राजा रघुनाथ जी के देवमाली शयालिकराम गैरोला के अनुसार आधुनिकता के इस दौर में विलुप्त होती संस्कृति को संरक्षित करने की नितांत आवश्यकता है। राजेंद्र सिंह रावत राजकीय महाविद्यालय बड़कोट में हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफेसर गैर गांव निवासी दया प्रसाद गैरोला का कहना है कि देवलांग संसार को तमसो मा ज्योतिर्गमय का संदेश देने वाला पर्व है। उनका कहना है कि हमें अपने इस पर्व की गरिमा को बनाए रखने की जरूरत है, जिससे हम अपनी इस विरासत को अपनी आने वाली पीढ़ी को उसके मूल स्वरूप में सौंप सकें।
देवलांग महापर्व में करीब 65-70 गांवों के लोग शामिल होते हैं। इसके अलावा देशभर से भी लोग इस आयोजन को देखने के लिए पहुंचते हैं। देवलांग महापर्व की प्रक्रिया पूरी रात चलती है, लेकिन जैसे-जैसे साठी और पानशाही थोकों के ओलेर पहुंचते जाते हैं, देवलांग का अल्लास जोर पकड़ने लगता है। धड़कनें तेज होने लगती हैं। दर्जनाओं ढोल-दमाऊ और रणसिंघों की गूंज से मन प्रफुल्लित और उत्साहित होने लगता है। पांव अपने आप थिरकने लगते हैं।
जब दोनों थाकों के लोग राजा रघुनाथ मंदिर परिसर में पहुंच जाते हैं, उसके बाद देवलांग का असली चरम शुरू होता है। पारंपरिक गीतों और लोकनृत्य के साथ दोनों थोकों के देवलंगेर मंदिर की परिक्रमा करते हैं। इस दौरान लोगों का जोश चरम पर रहता है। करीब सुबह पांच बजे देवलांग को उठाने की प्रक्रिया शुरू होती है।
यही देवलांग का असली रोमांच होता है, जिसे देखने हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं। देवलांग करीब छह बजे तक खड़ी हो जाती है। आग लगने के साथ ही सूर्योदय होता है और लोग श्री राजा रघुनाथ जी को प्रणाम कर अपने जीवन में उजाले की कामना के साथ अपने घरों को लौट जाते हैं।