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पुण्यतिथि पर विशेष : रवांई घाटी में पत्रकारिता के स्तंभ थे राजेंद्र असवाल, पढ़ें ये संस्मरण

  • महावीर रवांल्टा

रवांई क्षेत्र में पत्रकारिता की बात करें तो आज अनेक लोग इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। लेकिन, इस क्षेत्र से किसी भी नियमित समाचार पत्र का प्रकाशन नहीं हो सका। सिर्फ अस्सी के दशक के पूर्वाद्ध में बर्फिया लाल जुवांठा और शोभा राम नौडियाल के संपादन में पुरोला से निकले ’वीर गढ़वाल’ की जानकारी मिलती है। 1992 में पुरोला से पहली बार “रवांई मेल” (साप्ताहिक) समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ और इसके संस्थापक, प्रकाशक और संपादक थे, राजेन्द्र असवाल।

राजेन्द्र असवाल का जन्म नौगांव विकासखंड के बलाड़ी गांव में 1 जनवरी 1964 को हुआ था। आपके पिता का नाम नैपाल सिंह और मां का नाम चंद्रमा देवी था। तीन भाइयों में आप घर के सबसे बड़े बेटे थे। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई, फिर राजकीय इंटर कालेज नौगांव से इंटर करने के बाद स्नातक देहरादून से किया।

शुरुआती दिनों में आपने पुरोला में समाचार पत्र बेचने का काम किया। अपनी साइकिल पर बैठ कर दुबले-पतले राजेन्द्र असवाल इस काम को करते थे। फिर नौगांव मार्ग पर आपने पत्रिकाओं की दुकान खोल ली थी, जहां पर साहित्यिक कृतियां और पत्रिकाएं उपलब्ध हो जाती थी। वे ’अमर उजाला’ के लिए यहीं से समाचार भी भेजते थे और अपनी दुकान को उन्होंने नाम दिया था- किसान न्यूज एजेंसी।

1988 में उत्तराखण्ड क्रांति दल की सदस्यता लेने पर आपको ब्लाक अध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन, राजनीति में अरुचि होने के कारण उन्होंने यह दायित्व अपने मित्र दलवीर रावत को सौंपने का प्रस्ताव केन्द्रीय समिति को प्रेषित कर दिया था। इसके बाद उत्तराखंड क्रान्ति दल में कोई पद न लेने के बावजूद वे पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग का समर्थन करते रहे। 1991 के उत्तरार्द्ध में उन्होंने “अमर उजाला” को छोड़कर “रवांई मेल” के प्रकाशन की शुरुआत कर दी थी, जिसे विधिवत मान्यता 1992में मिली और ’रवांई मेल’ (साप्ताहिक) रवांई क्षेत्र से नियमित प्रकाशित होने वाला पत्र साबित हुआ।

अपनी सरकारी नौकरी के सिलसिले में जनवरी 1989 में उतरकाशी छोड़ने के बाद मेरा उनसे मिलना कम हो गया था। लेकिन, पुरोला जब भी आना होता, अनिवार्य रूप से उनसे मिलना होता। बातचीत होती और कुछ पत्रिकाएं और पुस्तकें भी खरीद हो जाती। इसके बाद उन्होंने कुमोला मार्ग में एक मकान के दुमंजिले में किसान न्यूज एजेंसी की दूकान ले ली थी। 19992 में तक्षशिला प्रकाशन नई दिल्ली से मेरे पहले उपन्यास ’पगडंडियों के सहारे’ का प्रकाशन हुआ तो इसकी काफी प्रतियां मैंने किसान न्यूज एजेंसी में उन्हें थमा दी थी।

उन्हीं के माध्यम से उपन्यास लोगां तक पहुंचा। उनसे मिलने पर वे अपने सहज अंदाज बोले- “किताबें काफी बिक चुकी हैं। पैसा इधर-उधर खर्च हो गया है। आप इसके बदले यहां से जो मर्जी किताबें ले जा सकते हैं। उनकी बात सुनकर मुझे क्या चाहिए था, अंधे को दो आंखें। मैंने वहां से अपनी पसंद की बहुत सारी पुस्तकें ली जो आज भी मेरे पुस्तकालय की शोभा बढ़ा रही हैं। इनमें राहुल सांकृत्यायन की ’बोल्गा से गंगा” भी शामिल है। इन सभी पुस्तकों पर किसान न्यूज एजेंसी की मुहर आज भी देखी जा सकती है।

अपने गांव की ओर आने पर उनसे मिलने का सिलसिला कभी भी थमा नहीं। उनके पास आना, कुछ देर बैठकर बातचीत के साथ चाय-पानी और फिर घर वापसी। कुछ समय बाद कुमोला मार्ग पर उनका बहुमंजिला मकान भी बन गया था, जहां प्रिंटिंग प्रेस के साथ ही एक कमरे में “रवांई मेल” का कार्यालय भी बना दिया गया था।

“रवांई मेल” को वे अपना पूरा समय देते हुए वे इसमें स्थानीय गतिविधियों, साहित्य और संस्कृति को प्राथमिकता के साथ स्थान देते गए। इसमें लोग बढ़ चढ़कर अपना रचनात्मक सहयोग देने के लिए क्षेत्र के रचनाकार आतुर होने लगे। वे पुरानी व एकदम नई पीढ़ी के अनेक लोगों को ’रवांई मेल’ में स्थान देकर आगे बढ़ने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते रहे। “रवांई मेल” उभरते रचनाकारों के लिए संजीवनी का काम करने लगा। इसके प्रकाशन में आने वाले आर्थिक संकट और अड़चनों का वे अपने ही स्तर से मुकाबला करते रहे लेकिन पत्र का नियमित प्रकाशन बाधित नहीं होने दिया।

’रवांई मेल’ स्थानीय स्तर पर आम जन का जरुरी व लोकप्रिय समाचार पत्र के रूप में स्थापित हो गया। अपने आसपास की गतिविधियों के साथ ही प्रकाशित सामग्री में लोक को अपनी तस्वीर नजर आने लगी। “रवांई मेल” का प्रकाशन नियमित चल रहा लेकिन इसी दौरान राजेन्द्र असवाल बीमारी की चपेट में आ गए। साधारण सी मधुमेह की बीमारी एक दिन उनकी जान लेकर ही मानेगी किसी ने नहीं सोचा था। वे दवा लेने के साथ ही लगातार परहेज भी करते जा रहे थे।

उनके पैरों में घाव हुए तो उन्हें भरने में कई वर्ष लग गए। दवा, इंजेक्शन चलते रहे। कई बार मेरे पहुंचते ही वे इंजेक्शन की शीशी और सिरिंज मेरी ओर बढ़ा देते थे और मैं उन्हें इंजेक्शन लगा देता था। ’रवांई मेल’ कार्यालय के साथ ही रसोईघर था। उसमें से वहां काम करने वाला युवक मेरे लिए कम मीठी और उनके लिए एकदम फीकी चाय के कप लेकर हाजिर हो जाता था।

कई बार ऐसा हुआ कि कुछ देर बैठने के बाद वे बोल पड़ते ’चलो! चाय पीकर आते हैं’ और फिर हमारे कदम बराबर में चल रहे बरियाल होटल की ओर बढ़ जाते। वहां से चाय पीने के बाद “रवांई मेल” के अंक लेकर मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ता। नौकरी के सिलसिले में मेरा बुलन्दशहर प्रवास हुआ तो मुझे “रवांई मेल” वहीं मिलता रहा। साहित्य सृजन के क्षेत्र में मेरे योगदान के लिए मुझे जो भी सम्मान मिले उनके समाचार प्रमुखता से “रवांई मेल” में प्रकाशित होते रहे। उनकी लगन व समर्पण का ही परिणाम था कि मुझ जैसे अनेक लोग अपनी माटी की गंध को बाहर रहकर भी ’रवांई मेल’ के माध्यम से महसूस करते रहे।

मेरी अनेक रचनाओं का प्रकाशन भी “रवांई मेल” में होता रहा। यहां तक कि उन्होंने मेरा एक साक्षात्कार भी लिया था। उनसे जब भी मिलना होता, उनके मिलने का वही सहज अंदाज होता। हालचाल पूछने के बाद वे कुछ देर समसामयिक मुद्दों पर चर्चा करते और फिर चाय की चुस्कियां लेने के बाद मुझे विदा लेकर चलना होता।

कई बातों पर चर्चा करते हुए वे अपनी टिप्पणी करते हुए मंद-मंद मुस्कराते और फिर गहरी चुप्पी ओढ़ लेते जैसे कह रहे हों कि यह सब तो चलता ही है। कभी भी मैंने उन्हें विचलित, असहज और किसी की भी बुराई करते हुए नहीं देखा। यह गुण उन्हें दूसरे लोगों से अलग बनाता रहा। अपनी बीमारी की गंभीर स्थिति में भी वे सहज बने रहे। न किसी तरह का रोना-धोना और न ही पत्रकारिता का कोई दंभ।

बस आमजन का सा साधारण जीवन। मेरी नज़र में उनकी खामोशी उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी रही और दमदार हथियार भी। एक बार किसी गर्मी की दोपहरी मैं उनसे मिलने गया था, तो उन्होंने फ्रिज से अनार का रीयल जूस का पैक निकाल कर एक गिलास में उड़ेलकर उसे मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले थे- ‘लो, पी लो! अनार का जूस है’ और मैंने पहली बार रीयल जूस पिया था, जिसे मेरे लिए ताउम्र भूल पाना मुश्किल है।

“दो चाय !’ होटल जाने पर उनका चाय के लिए आर्डर देने के ठंडे और एकदम अलग अंदाज को भूल पाना मेरे लिए भी संभव नहीं है। बीमारी के बाद वे दुबलाने लगे थे, लेकिन मिलने जुलने का अंदाज वही पहले जैसा था। जब उन्हें जरुरत लगती वे किसी रचना की मांग भी कर लेते। आराकोट में ही मेरी तैनाती के दौरान वे सपत्नीक मुझे मिलने आए तो मेरे आग्रह पर भोजन करने के बाद ही लौटे। भोजन करने तक हमारे बीच बातचीत का सिलसिला चलता रहा। वहां नारंगी से लदे पेड़ देखकर उन्होंने मुझसे पूछा- ’ये पेड़ ?’ ‘नारंगी के हैं’ बताते हुए मैंने उन्हें चखने को दी फिर उनके थैले में नारंगी भरकर उन्हें विदा किया। उनसे शायद मेरी यही सबसे लंबी मुलाकात थी।

7 सितम्बर 2001 को ’रवांई मेल’ की वर्षगांठ पर तहसील परिसर में ’रवांई मेल’ की ओर से एक भव्य सम्मान समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें तत्कालीन जिला पंचायत अध्यक्ष राजेन्द्र सिंह रावत, प्यारे लाल हिमानी, श्याम सिंह कंडारी, पत्रकार जगमोहन पोखरियाल, लोक गायक महेन्द्र सिंह चौहान, लक्ष्मण सिंह पंवार, द्वारिका प्रसाद बिजल्वाण सहित अनेक लोग उपस्थित थे। मैं भी इस आयोजन के लिए बुलन्दशहर से पुरोला पहुंचा था और ’रवांई मेल’ द्वारा मुझे सम्मानित किया गया था।

2010 ई में मुझे भाषा-शोध एवं प्रकाशन केन्द्र वड़ोदरा (गुजरात) की ओर से भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के अंतर्गत रवांल्टी भाषा पर कार्य करने का दायित्व सौंपा गया तो सारा कार्य करने के बाद मेरे सामने उसे कम्प्यूटर से टाईप करने की समस्या खड़ी हो गई। लेकिन, असवाल जी को इसका पता चला तब वे अपने उसी ठंडे व सहज अंदाज में बोले-’क्यों परेशान हो रहे हैं।

यहीं आफिस में टाईप हो जाएगा।’ और मेरा भाषा सर्वेक्षण संबंधी वह कार्य यहीं पर सम्पन्न हो गया था। इस कार्य के लिए मैं उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता कि मेरी बहुत बड़ी चिंता से उन्होंने चुटकी भर में ही मुझे मुक्ति दिलवा दी थी। बीमारी की स्थिति में परिवार जन उन्हें कब शिमला ले गए, मुझे इस बात की जरा भी जानकारी नहीं मिली। उपचार के दौरान ही 30 मई 2016 को उन्होंने इस दुनिया से सदा के लिए नाता तोड़ दिया और अपने पीछे छोड़ गए, दो पत्नियां भाग देवी व विद्या, तीन बेटे नितिन, विपिन व रोहित और दो बेटियां बबीता व रमिता और अपनी बहुत सारी स्मृतियां। अपने पैतृक गांव बलाड़ी से आकर 1990 में वे चक चंदेली (पुरोला) आकर बस गए थे।

30 मई 2016 को कमल नदी के पावन तट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। ढाई दशक तक ‘रवांई मेल’ के नियमित प्रकाशन व संपादन के माध्यम से उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र मे जो पहचान रवांई क्षेत्र को दिलाई, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता है। उन्होंने ’रवांई मेल’ को रचनाकारों के लिए बहुत ही सुगम और अधिक पहुंच वाला मंच बना दिया था, जिससे उनके संघर्ष की डगर काफी हद तक आसान हो गई थी।

उनसे गहरा जुड़ाव रखने वाले पूर्व यमुनोत्री विधायक एवं उत्तराखण्ड चकबंदी समिति के अध्यक्ष रह चुके केदार सिंह रावत उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि वे बहुत ही सज्जन होने के साथ स्वभाव से जागरूक पत्रकार, घुमंतू प्रवृत्ति व सामाजिक सोच के व्यक्ति थे। “रवांई मेल” को वे नियमित रुप से स्थानीय पहचान के साथ निकालते रहे यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

’रवांई मेल’ के माध्यम से उन्होंने न केवल क्षेत्रीय समस्याओं को उजागर किया अपितु लोक संस्कृति व साहित्य को भी पत्र में स्थान देते हुए रचनाकारों को निरंतर उत्साहित करते रहे। वयोवृद्ध कवि खिला नन्द बिजल्वाण उनका स्पष्टवादी और निर्भीक पत्रकार और दूसरों का भरपूर सम्मान करने वाले व्यक्ति के रुप में स्मरण करते हैं। उनके जाने के बाद शोक-संतप्त परिवार को संवेदना देने उनके घर चक चंदेली जाना हुआ था।

घर में बैठे उन्हें याद करने का सिलसिला जारी था, लेकिन मेरा मन तो उन्हें खोज रहा था। अब ढाई दशक तक ’रवांई मेल’ के माध्यम से हमारे दिलों में राज करने वाले राजेन्द्र असवाल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी संघर्ष यात्रा और प्रतिबद्धता हमारे लिए बहुत बड़ी धरोहर है और इसे हमें हर हाल में संभालना ही होगा तभी उनके होने के मायने को भी हम अच्छे से समझ पाएंगे।

(नोट : लेखक ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं।)

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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