Saturday , 26 July 2025
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उत्तराखंड को इस ‘महामारी’ से कौन बचाएगा सरकार ?

Yogesh Bhatt

कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ी जा रही जंग तो जीत ली जाएगी, लेकिन सिस्टम की ‘महामारी’ से उत्तराखंड को कौन बचाएगा ? यहां सिस्टम के हाल यह हैं कि महामारी से जंग के बीच भी लूट मची है, जहां देखों लाखों-करोड़ों के वारे न्यारे हो रहे हैं। डरी, सहमी, लाचार और बेबस जनता पूरी तरह सरकार के ‘रहम’ पर है। और, सरकार है कि उसे आम जनता से ज्यादा उन ‘असरदारों’ के हितों की परवाह है, जो सिस्टम की महामारी बने हैं। अब देखिए, देश भर में लॉकडाउन है, सब ठप पड़ा है, आम आदमी के लिए रोटी तक का संकट है और उत्तराखंड में निजी स्कूल अभिभावकों से खुले आम फीस वसूलने में लगे हैं।

स्कूलों की मनमानी पर लगाम

देश के तमाम राज्यों में निजी स्कूलों की मनमानी पर लगाम कसी जा रही है। राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों की सरकार ने अपने यहां निजी स्कूलों को सख्त हिदायत दी है कि न तो पूरे साल फीस बढ़ाई जाएगी और न ही लॉकडाउन के दौरान फीस वसूली की जाएगी। उतराखंड में इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि सरकार ही नहीं, विपक्ष भी पूरी तरह निजी स्कूलों के आगे नतमस्तक है।

मुख्यमंत्री राहत कोष

लॉकडाउन के दौरान फीस न वसूले जाने के आदेश तो सरकार ने यहां भी जारी किए मगर निजी स्कूलों के दबाव में खुद ही अपने आदेश की हवा भी निकाल दी। मुख्यमंत्री राहत कोष के लिए 61 लाख एक हजार रुपये का चेक काटकर राज्य में निजी स्कूल अब मनामानी पर उतारू हैं। शिक्षकों को वेतन देने के नाम अभिभावकों और छात्रों पर फीस का जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है। सरकार भी अब निजी स्कूलों के सुर में सुर मिला रही है। निजी स्कूलों की अराजकता देखिए कि फीस वसूली स्थगित रखने के लिए उन्होंने अपनी खुद की व्यवस्था बना डाली है। फीस स्थगित करने के लिए अभिभावकों को स्कूल प्रिंसिपल के आगे ‘गिड़गिड़ाना’ होगा और स्कूल का प्रबंधन इसकी पड़ताल कराएगा कि अभिभावक की स्थिति फीस देने की है या नहीं।

सरकार पर सवाल

सरकार पर सवाल है कि 61 लाख रूपए महामारी से निपटने के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष में लेकर निजी स्कूलों को मनमानी की छूट दे दी गयी। सरकार यह भूल गयी कि इन प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों के अभिभावकों का योगदान निजी स्कूलों से कहीं ज्यादा है। मोटे आकलन के मुताबिक प्रदेश में तकरीबन आठ लाख छात्र-छात्राएं निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनके अभिभावक या तो सरकारी सेवा में हैं या किसी न किसी कारोबार से जुड़े हैं। संकट के मौजूदा दौर में इनमें शायद ही कोई ऐसा हो जिसने किसी न किसी रूप में सहयोग न दिया हो। हर वेतनभोगी ने कम से कम एक दिन का वेतन मुख्यमंत्री राहत कोष में दिया है। अगर यह मान लिया जाए कि चार लाख परिवारों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं और इन परिवारों से औसतन एक हजार रूपया मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा हुआ तो यही रकम 40 करोड़ रुपये बैठती है। कहां 40 करोड़ और कहां 61 लाख।

अभिभावकों और छात्रों के प्रति संवदेनशीन होना चाहिए

अगर सरकार की दरियादिली या संजीगदी का पैमाना मुख्यमंत्री राहत कोष में दी गयी रकम से है तो इस लिहाज से भी सरकार को अभिभावकों और छात्रों के प्रति संवदेनशीन होना चाहिए था। काश, सरकार 61 लाख रुपये का चेक लेकर शासनादेश बदलवाने आए निजी स्कूल संचालकों से कहती कि संकट की इस घड़ी में वे धैर्य रखें, लॉकडाउन के दौरान छात्रों से फीस न वसूलें, हो सके तो फीस में कमी करें, नहीं तो यह सुनिश्चित करें कि अगले कुछ सालों तक फीस नहीं बढ़ाएंगे। सरकार कह देती कि न दें वे मुख्यमंत्री राहत कोष में कोई रकम, वे अपने स्कूल स्टाफ का ध्यान रखें, संकट के समय उनके साथ खड़े रहें। मगर नहीं, सरकार जनता के प्रति, छात्रों और अभिभावकों के प्रति संवदेनशील होती तो ऐसा करती न ! सरकार की ‘निष्ठा’ तो उन निजी स्कूल वालों के साथ रही जिन्होंने शिक्षकों को वेतन देने के नाम पर सरकार पर दबाव बनाया।

फीस स्थगित रखने का आदेश पलट दिया

सरकार ने तमाम संवेदनाओं को ताक पर रखते हुए लॉकडाउन में फीस स्थगित रखने का आदेश इसलिए पलट दिया क्योंकि स्कूलों का कहना था कि उन्हें अपने स्टाफ को वेतन देना है। सरकार को हर साल लाखों रूपये कमाने वाले निजी स्कूलों से यह नहीं पूछना चाहिए था कि संकट की घडी में उनका कोई सामाजिक दायित्व बनता है या नहीं ? अगर निजी स्कूलों ने सरकार से अपनी कमजोर आर्थिकी का रोना रोया है तो क्या सरकार को ऐसे आपातकाल में उनकी स्थिति की पड़ताल नहीं करानी चाहिए थी ?

निजी स्कूलों पर मेहरबान

किसे नहीं मालूम कि सरकार जिन निजी स्कूलों पर मेहरबान है उनकी हकीकत यह है कि चेरिटेबल संस्थान के नाम पर चल रहे यह स्कूल बड़े व्यवसायिक केंद्र हैं। हर महीने ये स्कूल करोडों रुपये का कारोबार करते हैं मगर इस कमाई पर टैक्स का भुगतान नहीं करते। अधिकांश स्कूलों के संचालकों का संबंध जमीन, खनन, शराब या दूसरे किसी कालेधन से जुडे व्यवसाय से है। राजनेताओं और नौकरशाहों की काली कमाई के ‘निवेश’ के लिए भी स्कूल खासे मुफीद होते हैं। बड़े व्यवसायिक केंद्र बने निजी स्कूल दरअसल हाथी की तरह हैं।

लगभग दो हजार करोड़ रुपये कारोबार

उत्तराखंड में छोटे-बड़े कुल मिलाकर करीब चार हजार निजी स्कूलों का सालाना करोबार लगभग दो हजार करोड़ रुपये का है, मगर सरकार को इनसे एक रूपए की आमदनी नहीं है। रहा रोजगार का सवाल तो सरकारी के मुकाबले इन स्कूलों के शिक्षकों और शिक्षणेत्तर कर्मचारियों का वेतन बहुत कम है, जबकि काम का दबाव काफी ज्यादा है।

सरकार की सख्ती क्यों नहीं ?

सवाल यह भी उठता है कि लाखों करोड़ों रूपया मुनाफा कमाने वाले निजी स्कूलों पर सरकार की सख्ती क्यों नहीं ? क्यों इन स्कूलों के सालाना मुनाफे का हिसाब लिया जाता ? संकट की इस घड़ी में अगर ये स्कूल दो महीने की फीस नहीं छोड़ सकते और अपने स्टाफ के साथ नहीं खड़े हो सकते तो इन पर किसी भी तरह की दरियादिली क्यों ? सरकार के लिए यह बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि अगर वाकई करोड़ों का मुनाफा कमाने वाले स्कूल एक महीने के लॉकडाउन में कंगाल हो चुके हैं तो जनता के उस वर्ग का क्या होगा जो मासिक वेतन और दैनिक आमदनी पर निर्भर है ?

स्कूलों को तो अपनी फीस की चिंता

स्कूलों को तो अपनी फीस की चिंता है लेकिन लॉकडाउन के बाद बेघर और बेगार हो चुके एक बड़े वर्ग के सामने तो फीस के आगे बस्ता, किताब, ड्रेस और न जाने कितनी चिंताएं हैं। काश, सरकार समझ पाती ! दरअसल यह सिस्टम की महामारी का दुष्प्रभाव है, इसी का नतीजा है कि संकटकाल में मानवता निभाने की प्रधानमंत्री की अपील भी बेअसर साबित हो रही है। हमारा सिस्टम महामारी का शिकार नहीं होता तो राज्य में निजी स्कूलों पर शिकंजे के लिए एक्ट तैयार हो चुका होता।

उत्तर प्रदेश में एक्ट तैयार होकर लागू

पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में योगी सरकार और यहां त्रिवेंद्र सरकार तकरीबन एक साथ गठित हुईं। उत्तर प्रदेश में एक्ट तैयार होकर लागू भी हो चुका है, वहां एक्ट की अनदेखी करने वाले स्कूलों पर एक्शन भी शुरू हो चुका है। उत्तराखंड में सब हवा में हैं। सिस्टम की महामारी का दुष्प्रभाव देखिए शिक्षा मंत्री तीन साल से लगातार एक्ट बनने की बात कर रहे हैं, मगर वो एक्ट है कहां, उन्हें खुद नहीं मालूम। एक्ट न बनने पर वे जनता से माफी मांग चुके हैं, उनका कहना है कि अधिकारी उनकी सुनते ही नहीं, वह क्या करें !

आज तक एक्ट पिटारे से बाहर नहीं निकला

एक्ट पर बार-बार दिये निर्देशों का पालन न होने पर उन्होंने मुख्यमंत्री से बात भी की मगर क्या हुआ, पता नहीं। न आज तक एक्ट पिटारे से बाहर निकला और न ही शिक्षा मंत्री के आदेशों को ताक पर रखने वाले अफसरों पर ही कोई एक्शन हुआ। सरकार इस माहामारी के दौर में लाख अपनी पीठ ठोके, जय-जयकार कराए मगर आम आदमी का भरोसा सरकार से उठ रहा है। सरकार से भरोसा खोकर आम आदमी न्याय की उम्मीद में न्यायालय पहुंच रहा है। निजी स्कूलों का मामला तो एक बानगी है, सिस्टम में ‘महामारी’ हर जगह पसर चुकी है। कोरोना से लड़ते-मरते जंग जीत भी गये तो इस सिस्टम की ‘महामारी’ से कैसे पार पाएगी ये पीढ़ी ?

(नोट: योगेश भट्ट वरिष्ठ पत्रकार हैं. आप उनकी फेसबुक प्रोफाइल खबर के शुरुआत में उनके नाम पर क्लिक कर देख सकते हैं)

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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