- दिनेश रावत
एक खेत! हर वर्ष पहली बार जब भी वहां घास कटता है, लोगों में प्रसाद स्वरूप बंटता है। जी हां! यह सच है।
वहां उत्सव-सा माहौल दिखता है। आस्था दिखती है, उल्लास दिखता है। इसलिए घास काटने के लिए भी हर घर से कोई-न-कोई अवश्य पहुंचता है। उस दिव्य भूमि को बांदता (प्रणाम करता) है। आराध्य इष्टदेव का स्मरण करते हुए दाथरी (दरांती) उठाता है और घास काटने लग जाता है।
घास काटता है। फूले (बंडल) बांधता है। बोझा बनाता है लेकिन उठाने से पहले उस भूमि और भूमि से उपजी दिव्य शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता अभिव्यक्त करना नहीं भूलता है जिसके नाम से पीढ़ियों से यह खेत सुरक्षित और संरक्षित है। इसलिए गीत की तांद में जुट जाता है। हारूल के साथ इष्टदेव का स्मरण-वंदन करता है। उत्सव मनाता है।
हंसते-मुस्कुराते, गाते-गुनगुनाते हुए गीतों की श्रृंखला को आगे बढ़ता है और आस्था से आनंद-अनुरंजन तक पहुंच जाता है। यही उस लोक की खासियत भी है कि वहां प्रायः हर अवसर पर उत्सव-सा माहौल नज़र आता है जो लोक वासियों की उत्सव धर्मिता को दर्शाता है।
….यह एक ऐसा खेत है जो बीच सेरे में है। बीच सेरे में होने के बाद भी उसमें गेहूं, नाज (धान), कोदू (मंडुवा)-झंगरू, चीणा-कौंणी की फसलें नहीं बल्कि आस्था की फसलें लहलहाती हैं। जहां की माटी चंदन बनकर माथे की आभा बढ़ाती है।
इसलिए यह भूमि शारीरिक से अधिक मानसिक व आत्मिक पौषण लुटाती है। यह दिव्य खेत कहीं और नहीं बल्कि बनाल भू-भाग के मध्य में ही अवस्थित हैं जिसे लोकवासी देऊडोखरी (देवडोखरी) के नाम से जानते-मानते, पूजते-बांदते (नमन करते) हैं। कल वहां की बंधान खुली। वीडियो देखी तो एक पल के लिए लगा मानो वहीं पहुंच गया हूं।
(नोट: लेखक शिक्षक हैं। वर्तमान में हरिद्वार में सेवाएं दे रहे हैं। साहित्यकार सृजन में अहम योगदान दे रहे हैं। पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। रंगकर्मी और लोक-संस्कृति के साधक भी हैं। रचनात्मकता उनकी संगिनी है।)