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भू-कानून और मूल निवास-1950 का इतिहास, क्या इस बार उत्तराखंडियों को मिलेगा उनका हक?

  • प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’

भू-कानून और मूल निवास-1950 की मांग उत्तराखंड में कोई नया मुद्दा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि इसके लिए पहले आंदोलन ना हुए हों। प्रदेश में भू-कानून की कवायद पहले भी होती रही है। जमीन खरीद को लेकर कुछ प्रावधान किए गए थे। लेकिन, उनमें फिर बदलाव भी कर दिए गए। भू-कानून और मूल निवास-1950 क्यों जरूरी है। पहले इसको समझने की जरूरत है।

देशभर के हिलालयी राज्यों में उत्तराखंड की ऐसा राज्य है, जहां बाहरी लोगों को किसी भी तरह की जमीनें खरीदने की खुली छूट है। अन्य किसी भी हिमालयी राज्य में इस तरह की खुली छूट नहीं है। 2000 में जब राज्य बना तो भूमि खरीद के नियम भी बदले गए, लेकिन फिर उद्योगों के बहाने जमीन खरीदने की प्रक्रिया को आसान बना दिया गया। उसके बाद से जमीन खरीद का सिलसिला चल निकला है।

उसका नजीजा यह है कि भू-कानून नहीं होने के कारण उत्तराखंड की जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्जा होता आ रहा है। जिसके चलते उत्तराखंड के मूल निवासी भूमिहीन होते जा रहे हैं। लोग अपने भूमिधरी का अधिकारी खोते जा रहे हैं। आलम यह है कि जिन जमीनों पर कभी लोगों की खेती होती थी, उन जमीनों पर अब बाहरी लोगों का कब्जा है। बड़े-बड़े बंगले और होटल बने हैं।
हिमाचल में भी कृषि भूमि के गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद बिक्री पर रोक है।

राज्य के कुल क्षेत्रफल (56.72 लाख हेक्टेअर) का अधिकांश क्षेत्र वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 63.41 प्रतिशत) और बंजर भूमि के तहत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि बेहद सीमित, 7.41 लाख हेक्टेयर (लगभग 14 प्रतिशत) है। देश की आजीदी के वक्त राज्य में एकमात्र भूमि बंदोबस्त 1960 से 1964 के बीच हुआ था। लेकिन, पिछले करीब 60 सालों में कितनी कृषि भूमि को व्यावसायिक कार्यों के लिए बेचा गया है। इसका आंकड़ा किसी के पास नहीं है। सरकारों ने भी कही इस इस पर ध्यान नहीं दिया।

वर्षा सिंह की रिपोर्ट

डाउन-टू-अर्थ में वरिष्ठ पत्रकार वर्षा सिंह की रिपोर्ट के अनुसार 1815-16 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान एक-दो वर्ष के भीतर जमीनों का बंदोबस्त किया गया। क्योंकि उस समय खेती पर लिया जाने वाला टैक्स आमदनी का बड़ा जरिया था। उस समय भी पहाड़ों में 10-12 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि रही। वर्ष 1840-46, 1870 में जमीन का बंदोबस्त (लैंड सेटलमेंट) हुआ।

इस दौरान खेती का विस्तार हुआ। प्रति व्यक्ति जमीन के साथ-साथ आबादी भी बढ़ी। 1905-06 तक कुछ और जमीन बंदोबस्त हुए। ब्रिटिश काल में वर्ष 1924 के बंदोबस्त के बाद स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने के साथ कोई उल्लेखनीय बंदोबस्त नहीं हुए। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 (जेडएएलआर एक्ट) आया। कुमाऊं और उत्तराखंड जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 में राज्य में भूमि बंदोबस्त हुआ।

राज्य की सीमित कृषि योग्य भूमि का इस्तेमाल ही बुनियादी ढांचे के विकास के लिए हुआ। पाठक कहते हैं “तराई में खेती की जमीन पर उद्योग आए। शहरीकरण हुआ। पहाड़ों में जिला मुख्यालय, शिक्षण संस्थान, सब श्रेष्ठ कृषि भूमि पर बने। टिहरी बांध की झील से पहले भिलंगना और भागीरथी की घाटियां बेहद समृद्ध कृषि भूमि थीं, जो झील का हिस्सा बन गईं।

इसी तरह खेती के लिहाज से समृद्ध पिथौरागढ़ में आईटीबीपी की दो बटालियन, दो कैंटोनमेंट, रक्षा मंत्रालय का पंडा फार्म सबकुछ कृषि भूमि पर बना। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की 16,000 एकड़ भूमि का एक बड़ा हिस्सा फैक्ट्रियों, रेलवे से लेकर सरकारी प्रतिष्ठानों को दिया गया। यहां हेलीपैड के लिए भी कृषि विवि की भूमि दी गई।”

भू-कानूनों में बदलाव

2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून बनाया। इस कानून के तहत बाहरी लोगों के लिए कृषि भूमि की खरीद 500 वर्ग मीटर तक सीमित कर दी गई थी। 2008 में मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने इसमें संशोधन किया और पुराने कानून को कुछ और सख्त करते हुए भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 मीटर कर दी गई।

त्रिवेंद्र ने खोल दिए रास्ते

2018 में त्रिवेंद्र रावत ने मुख्यमंत्री रहते हुए इस कानून में बड़े बदलवा कर दिए। उन्होंने पिछले सभी प्रतिबंधों को हटा दिया। उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा और किसान होने की बाध्यता ही खत्म कर दी। इतना ही नहीं कृषि भूमि का भू उपयोग बदलना यानी कृषि से अकृषि भूमि करना आसान कर दिया। तब से जमीनों की खरीद-फरोख्त में तेजी आई। उसीका नजीता है कि अब फिर से मांग तेजी होने लगी है।

युवाओं ने संभाली कमान

मूल निवास और भू-कानून समन्वस संघर्ष समिति लगातार इस मुद्दे को उठा रही है। इस समिति की कमान पूरी तरह से युवाओं के हाथ में हैं। जिन्होंने प्रदेश की बेहतरी और आनी वाली पीढ़ी के भविष्य के लिए खुद को झांेंक दिया है, जिस उम्र में लोग करियर पर फोकस करते हैं। युवाओं की ये टोली आंदोलन कर रही है।

प्रदेशभर में घूम-घूम कर लोगों को जागरूक कर रहे हैं। देहरादून से लेकर गैरसैंण और ऋषिकेश तक रैलियों के जरिए लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं। आंदोलन का असर नजर भी आ रहा है। समिति के संयाजक मोहित डिमरी पत्रकारिता करते हुए संघर्ष की राह पर चल पड़े। मोहित डिमरी का कहना है कि सख्त भू-कानून और मूल निवास-1950 इस वक्त राज्य की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम उत्तराखंड होने का अस्तित्व ही खतरे में डाल देंगे।

समिति के सह संयोजक लुसुन टोडरिया और प्रांजल नौडियाल का कहना है कि उत्तराखंड के मूल निवासियों के अधिकार सुरक्षित रहें, इसके लिए जरूरी है कि मूल-निवासी की कट आफॅ 1950 होनी चाहिए। प्रदेश में किसी भी तरह की नौकरियों में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी राज्य कके युवाओं की होनी चाहिए। भू-कानूनन के तहत शहरी क्षेत्रों में बाहरी लोगों के लिए भूमि खरीद की सीमा केवल 200 वर्ग मीटर होनी चाहिए। इसकी खरीद के लिए राज्य में 30 पहले के निवासरत रहने की शर्त लागू की जानी चाहिए।

क्या धामी लेंगे सख्त एक्शन 

इस आंदोलन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई लोगों का समर्थन मिल रहा है। राजनीतिक दलों के नेताओं भी इसमें शामिल हैं। लगातार आंदोलन और जनसमर्थन का असर यह है कि अब सरकार भी सख्त भू-कानून की बात कह रही है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि सख्त भू-कानून की दिशा में सरकार काम कर रही है। त्रिवेंद्र सरकार में हुए गलति को सुधारने के लिए सरकार कदम बढ़ाने के संकेत दे चुकी है। सरकार क्या फैसला देती है? यह देखने वाली बात होगी। लेकिन, संघर्ष समिति ने आंदोलन को और तेज करने का ऐलान कर दिया है।

क्या है मूल निवास का इतिहास 

1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई। उत्तराखंड में इसीके आधार पर मूल निवास की मांग की जा रही है। मूल निवास को लेकर सख्त कानून नहीं होने के कारण बाहरी लोग लगातार नौकरियों पर कब्जा कर रहे हैं।

उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी। जबकि पूरे देश में यह वर्ष 1950 है। इसके बाद से ही राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था कार्य करने लगी।

2010 में मूल निवास संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने देश में एक ही अधिवास व्यवस्था कायम रखते हुए, उत्तराखंड में 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया, लेकिन सरकारों ने इसको आगे नहीं बढ़ाया। सरकार ने झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी मूल निवास का मुद्दा उठ चुका है। इन राज्यों में भी 1950 को मूल निवास का आधार वर्ष माना गया है और इसी आधार पर जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं।

About प्रदीप रावत 'रवांल्टा'

Has more than 19 years of experience in journalism. Has served in institutions like Amar Ujala, Dainik Jagran. Articles keep getting published in various newspapers and magazines. received the Youth Icon National Award for creative journalism. Apart from this, also received many other honors. continuously working for the preservation and promotion of writing folk language in ranwayi (uttarakhand). Doordarshan News Ekansh has been working as Assistant Editor (Casual) in Dehradun for the last 8 years. also has frequent participation in interviews and poet conferences in Doordarshan's programs.

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